भगवान महावीर की साधना, तपस्या तथा आध्यात्मिक चिंतन का पर्याय है। उनकी साधना व्यक्तिपरक, निष्कर्म धर्मी एवं निष्कर्म आत्मा की अनुभूति करने से प्रारंभ होकर मानव के जीवन में आचरण का महत्व एवं आत्मचेतना द्वारा स्वयं को पहचानने तक का मार्गदर्शन करती है।
भगवान महावीर ने विश्व के नए समाज के निर्माण हेतु तीन महत्वपूर्ण सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकांतवाद। अहिंसा पर विशेष बल देते हुए उन्होंने इसे परम धर्म की संज्ञा प्रदान की। महावीर के अनुसार अहिंसापरमोधमर्: अत्युक्ति नहीं, वरन् समाज के अस्तित्व का आधार है। समाज को खंड-खंड होने से बचाने हेतु शक्ति साधना के बल पर जीवात्मा को परमात्मा बनने के लिए भगवान महावीर ने ऐसी प्रयोग शाला तैयार की, जिसमें चरित्र, तप तथा पूर्वाबद्ध कर्मों का क्षय करके आत्म विभाव को मानवहित में लगाकर नैसर्गिंक कर्मों से जन-जन की सेवा संभव हो सके।
भगवान महावीर ने प्राग्वैदिक युग के पोषित तथा विकसित श्रमणों की परंपरा से धार्मिक सूत्रों द्वारा अपने युग के संशयग्रस्त मानव समाज को धर्माचरण की नई दिशा प्रदान की। श्रमण की निग्र्रंथ परंपरा में तीर्थंकर पाश्र्वनाथ के चातुर्मास की जगह पांच महाव्रत का उपदेश दिया। संग्थघ्वं संबर्दध्वं संग वो मनांसि जानताम् (ऋग्वेद 10 118/2) तुम मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन के साथ-साथ विचार करें। इस वैदिक चिंतन में सुसंस्कारित मानव हेतु अनेक सूत्र विद्यमान हैं, जिसे निहित स्वार्थपरता के कारण शुष्क कर्मकांडों तथा धार्मिक अंध विश्वासों द्वारा यज्ञ में पशु की आहुति जैसी विकृतियों से पूर्ण समाज को मुक्त करने हेतु उपनिषद के संदर्भ में धर्म एवं दर्शन को महावीर ने नया आयाम दिया।
महावीर स्वामी ने एकात्म चेतना जागृत करके औपनिषदिक चिंतन को सामाजिक एकता के परिप्रेक्ष्य में एकस्थता सर्व भूतांतरात्मा एवं ईशावस्यामिंदम सर्वम का अलख जगाया। उनका कहना था कि हमारी बातों को हमारे प्रभाव के कारण न मानकर (परीक्षा भिक्षवों ग्राहये मद्वाथों न गौैरवात) उसका परीक्षण करके ग्रहण करो। यही नहीं वे आगे कहते हैं कि किसी का अनुसरण एवं अनुकरण न करके आत्मनिरीक्षण द्वारा प्रतीत हुए तथ्यों का भलीभांति निरीक्षण करने के बाद अहिंसा को परमधर्म के रूप में स्वीकार करें, ताकि व्यक्ति धर्म को सामाजिक भूमिका को प्रतिबिंबित कर सके।
धर्म के संबंध में महावीर स्वामी का स्पष्ट मत था कि, जिसे धारण करे वही धर्म है (धीरयति इति धमर्:) धर्म में भेदभाव का सर्वथा अभाव हो और मानव के विकास में गुण शक्ति की भांति कार्य करे, तब एक समग्र शक्ति साधना धर्म हो जाता है। श्रेष्ठ सामाजिक व्यक्ति बनने के लिए जिन जीवन मूल्यों और आदर्शों को धारण करके धर्म के अनुरूप मानव अपने आचरण को निर्मित करता है, वही धर्म है। महावीर स्वामी ने आपसी मतभेदों को भुलाने के लिए धर्म का उपयोग किया तथा इसकी सीमाओं को तोडकऱ विराट स्वरूप प्रदान किया। इसी प्रकार आत्म साधना के लिए निगूढ़तम रहस्यों द्वारा आत्म तत्व को प्रत्यक्षीकरण करने का मार्ग दिखाया। यही मार्ग सृष्टि के कण-कण को राग-द्वेष की सीमा से परे मैत्री, करुणा, अपनत्व की प्रेरणा प्रदान करता है।
महावीर स्वामी ने गहन विश्लेषण के द्वारा आत्मा की स्वतंत्रता की स्थापना करके इसके अस्तित्व को जीव से संबद्ध किया। तर्क के आधार पर महावीर ऊर्जा को जीव की सिद्धि में चेतन को स्वयंसिद्ध मानते हैं। जीव वही है जो आत्मा है यही आत्मा विधाता और विज्ञाता है। ज्ञान की दिव्य दृष्टि ही आत्मा है इसी से आत्म प्रतीति होती है। बंधन और मोक्ष प्रदान करने की शक्ति अपने अंदर विराजमान है, क्योंकि आत्मा उपार्जित कणों से बंधन मुक्त होती है। इसलिए बंधन की मुक्ति स्वयं के वश में है। आत्मा ही सभी पापों का नाश करके सिद्ध लोक और सिद्ध पद को प्राप्त करती है। साधन के सिद्ध होने से परमात्मा स्वरूप हो जाता है। यदि अस्तित्व की दृष्टि से सभी आत्माएं स्वतंत्र हैं तो स्वरूप की दृष्टि में भी समान हैं। प्रत्येक आत्मा का नैसर्गिक एवं वास्तविक स्वरूप है, इसलिए आत्मा नित्य मुक्त है। आत्मा न कभी जन्म लेती है और न ही विसुप्त होती है। इसलिए साधन को समाज में मैत्रीभाव से परिपूर्ण होना चाहिए। सार्वभौमिक जगत के सभी जीव समरस है। सबका हित करना चाहिए। यही समभाव की साधना व्यक्ति को श्रमण बनाती है। इसलिए लोक मंगल हेतु आचरण मूलक व्यावहारिक एवं सामाजिक समता के प्रति उत्सुकता रहना चाहिए।
महावीर स्वामी का स्पष्ट मत था, जो बात हमें अच्छी नहीं लगती वही दूसरों को भी नहीं भाती, इसलिए दूसरों के दु:ख समझने वाला व्यक्ति दूसरे को अप्रिय लगने वाली बात नहीं करेगा। जब व्यक्ति भी जीवों को समरस देखता है, तो राग-द्वेष का स्वत: विनाश हो जाता है। यही मनुष्य को धार्मिक बनाने की प्रथम स्थिति है जो समभाव तथा आत्मतुल्यता की दृष्टि के विकास में सहायक होती है। इससे व्यक्ति स्वत: अहिंसक हो जाता है। अहिंसा मात्र निवृत्तिपरक साधना ही नहीं, वरन मानव को सामाजिक बनाने का अमूल्य मंत्र भी है। अहिंसा का संबंध व्यक्ति की मानसिकता से होता है। इसलिए आत्मा अहिंसक है, जब हमारे अंदर किसी का वध करने का विचार जन्मता है तो वह मानसिकता से उद्भूत होता है। इसलिए हिंसा पाशविकता का और अहिंसा मानवीयता तथा सामाजिकता की पूरक है। आज इसी पथ पर चलने की परम आवश्यकता है। भ्रष्टाचार, अपहरण, हत्या आदि विभिन्न प्रकार से दूसरे को दुख पहुंचाना ही पाशविकता का प्रतीक है।
भगवान महावीर अपरिग्रह से आसक्ति तथा ममता के प्रस्फुटन को स्वीकार करते हुए परिग्रह को वस्तु के प्रति समत्वहीनता का प्रतीक बताते हैं। अहिंसक व्यक्ति रागद्वेषादि रहित होकर स्वयं अपरिग्रहवादी हो जाते हैं। उनके जीवन के मूल्य और दृष्टि बदल जाती है। अहिंसक व्यक्ति भौतिक पदार्थों की आसक्ति से मुक्त हो जाता है। अहिंसक व्यक्ति अपनी सीमाओं को इतना बांध देते हैं कि दूसरे को कष्ट की अनुभूति न हो। जब व्यक्ति धर्म से प्रेरणा लेकर अपनी इच्छाओं और कामनाओं को स्वयं सीमित कर लेता है तब बाह्य सामाजिक समस्याएं स्वयं सुलझ जाती हैं। परिग्रह की दृष्टि मानव को अनुदार बना देती है। एक और उसकी मानवीयता नष्ट हो जाती है। दूसरी ओर कामनाओं का प्रमाद बढ़ता जाता है। उसका जीवन शोषण और पाशविकता की ओर अग्रसर हो उठता है, जिससे जीव परिग्रह के निमित्त अहिंसा, असत्य, भाषण, चोरी, मैथुन की ओर उन्मुख होकर दंभाचरण करने लगता है।
अहिंसक व्यक्ति दूसरों की आत्मा को ठेस न पहुंचाने के लिए प्रयत्नशील होकर सत्य की खोज करने लगता है। उसकी बोली वाणी से प्रेम उमड़ पड़ता है। अनेकांतवाद व्यक्ति की आत्मा को झकझोरते हुए उसकी आध्यात्मिक दृष्टि के समक्ष प्रश्न कर बैठता है कि, प्रत्येक पदार्थों में विविध धर्म गुणों का समावेश है। संपूर्ण सत्य का साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा संभव नहीं हो पाता, क्योंकि सीमित दृष्टि के कारण वस्तु का एकाकीपन झलकता है। विभिन्न लोगों को देखने पर हमें वस्तु की विभिन्नता का भान होता है जिसके लिए दृष्टियों की प्रतिक्रिया भी भिन्न होने लगती है, जिससे हमें उन्मुक्त विचार की प्रेरणा मिलती है।
भगवान महावीर ने जिस जीवन दर्शन की ओर मनुष्य और समाज को अग्रसर किया है, वह मानव जगत हेतु अमृततुल्य सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों प्रकार की समस्याओं का निदान मात्र अहिंसा है। यहां धर्म और दर्शन वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन की व्यवस्था एवं मनोवैज्ञानिक सापेक्षवादी चिंतन है। मानव के भीतर का उद्वेग, अशांति तथा मानसिक तनावों से मुक्ति का वही साधन है, जिससे मानव अस्तित्व को बनाए रखा जा सकता है। भगवान महावीर की वाणी को युगीन परिस्थितियों तथा समस्याओं के अनुरूप आज व्याख्या करने की आवश्यकता है। वाणी मानव मात्र हेतु सम मानवीय मूल्यों की स्थापना का पूरक है।
सापेक्षवादी सामाजिक संरचनात्मक व्यवस्था का मूल्य चिंतन है। हमें इसी ओर अग्रसर होकर आदर्श समाज का निर्माण करना होगा। जिससे समस्त जीवों को सुख पहुंचाया जा सके, जिससे अन्याय, अत्याचार, और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लडकऱ अपनी जीवन मुक्ति के अतिरिक्त मानव के दुखों की मुक्ति का पर्याय बनाया जा सके।
विजयनाथ तिवारी ‘आशीष – विनायक फीचर्स