Saturday, May 18, 2024

पितृपक्ष में केवल एक दिन जल देकर इतिश्री कर लेना कहां तक उचित ?

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अभी पितृपक्ष का महीना चल रहा है और सभी हिंदुओं के घरों में अपने पूर्वजों के लिए कुछ ना कुछ अनुष्ठान संपन्न किया जा रहा है। हम ऐसा क्यूँ करते हैं और इसका वैज्ञानिक आधार क्या है , इसका जबाब किसी के पास नहीं है।चूँकि ये बहुत पहले से होता आ रहा है । उसे बगैर सोचे समझे आगे भी करते रहना है।
दरअसल धर्म के मामले में पूरा विश्व अपने तार्किक आधार को परे रख देता है और अपनी पुरानी परंपराओं का अंधा अनुकरण करने लगता है। किसी में ये साहस नहीं होता  कि वह किसी भी वर्षों पुरानी चलती आ रही परंपराओं पर कोई सवाल उठा सके।
दरअसल हर इंसान की जिंदगी अनिश्चितता से भरी  हुई रहती है।अगले पल क्या हो जाये, किसी को पता नहीं रहता और यही अनिश्चितता लोगों को धर्मभीरु बना देती है।अनिष्ट की आशंका लोगों को धार्मिक बनने को मजबूर करती है और ये होना भी चाहिए लेकिन जब हम इसी क्रम में बहुत से ऐसे कार्य करने लगते हैं जिसका कोई ठोस आधार नहीं होता है तो वह कार्य समाज पर एक बोझ के समान हो जाता है।
आज से सैकड़ों साल पहले सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणों का एक वर्ग हुआ करता था जिनके जीवन का मापदंड समाज में अनुकरणीय होता था।वह समाज केवल धार्मिक क्रियाकलाप या पठन पाठन या शोध का काम किया करते थे।चूँकि उनके आय का कोई श्रोत नहीं होता था , तो वे लोगों के द्वारा दिये गए दान के आधार पर अपना जीवनयापन किया करते थे। इसलिए तब के समाज में कुछ विशेष अवसरों पर ब्राह्मणों को दान देने की व्यवस्था की गई।उसमें एक व्यवस्था किसी के मृत्यु होने के बाद की भी थी।
सैकड़ों साल वह व्यवस्था उस समय की परिस्थितियों के अनुसार निश्चित तौर पर सही रही होगी  लेकिन आज के मौजूदा दौर में क्या ये व्यवस्था कायम रहना चाहिए या नहीं, इस पर हम सभी को विचार करना चाहिए क्योंकि आज ब्राह्मण वर्ग के लोग काफी बड़ी संख्या में पूरी तरह भी सम्पन्न हैं  और आज उन्हें किसी तरह की दान की आवश्यकता नहीं है।
इसी तरह जब हम पितृपक्ष में अपने पूर्वजों के नाम पर जो ब्राह्मणों, कुत्ते, गाय एवं कौवे को खिलाने – पिलाने का कार्य करते हैं तो इसमें वैज्ञानिक आधार क्या है ? आप किसी भी जीव को खिलाते पिलाते हैं इससे किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए  और संभव हो सके तो नियमित तौर पर करें लेकिन ये सोच के साथ किसी को खिलाना पिलाना कि इससे आपके पूर्वजों के दिवंगत आत्मा को कुछ प्राप्त होगा ,ये समझ से परे है ?
एक शरीर जिसका देहावसान हो चुका है , उसके लिए सब कुछ बेमानी है और गीता के अनुसार आत्मा पर किसी चीज का प्रभाव नहीं पड़ता है । इसलिए कौवे को पूड़ी सब्जी खिला देने से किसी मृतक की आत्मा का पेट भरेगा, ये कभी भी नहीं हो सकता है और अगर आत्मा को पेट भरने की जरूरत होगी तो सालों भर होगी ना कि केवल पितृपक्ष में ?
अगर आपको अपने पूर्वजों की इतनी ही चिंता है तो उनके नाम पर सालों भर अच्छा कार्य करें। केवल पितृपक्ष में एक दिन जल देकर इतिश्री कर लेना कहाँ तक उचित है ? हिन्दू धर्म में बहुत से धार्मिक क्रियाकलाप वर्षों पूर्व के सामाजिक व्यवस्था के आधार पर था लेकिन आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं।इसलिए अब जो भी क्रियाकलाप करना है उसे आधुनिक संदर्भ में क्रियान्वित करना होगा। केवल आँख मूंदकर परम्पराओं का अनुकरण बहुत घातक हो सकता है।
आज समाज की क्या स्थिति है और इसमें किसको क्या जरूरत है । इसके हिसाब से काम होना चाहिए।पहले ब्राह्मणों को दान दिया जाता था क्योंकि वे दान पर ही अपना जीवन यापन करते थे लेकिन आज वे साधन सम्पन्न हैं , तो आज उनकी जगह उंनको दान दें जो आज साधन संपन्न नहीं हैं।
पशु पक्षियों की तो हर समय सेवा करनी चाहिए।किसी भी प्राणी के लिए इस दुनिया के बाहर कोई दुनिया नहीं होती है। स्वर्ग या नर्क की अवधारणा पूरी तरह काल्पनिक है। अगर ये सच है तो फिर मरने के बाद प्राणियों को या तो स्वर्ग में या नर्क में रहना चाहिए और वहाँ उनके लिए उनके कर्मों के मुताबिक बेहतर व्यवस्था होगी .फिर पितृपक्ष में उनके जल या खाने की व्यवस्था क्यूँ किया जाना चाहिए ? हमें किसी एक आधार पर कायम रहना चाहिए।
ये कितना हास्यास्पद है कि एक गाय या बछड़े का दान इसलिए कर दो कि ताकि उस तथाकथित वैतरणी नदी पार करने में उसकी पूँछ पकडऩे की आवश्यकता होगी। ये सब कल्पना की पराकाष्ठा है ।  और सबसे बड़ी बात कि लोग इन सब बातों पर बिना सोचे समझे आँख मूँदकर विश्वास भी कर लेते हैं। दरअसल धर्म एक अफ़ीम की तरह है जिसके नशे में व्यक्ति के सोचने समझने की क्षमता खत्म हो जाती है ।
वह क्या कर रहा है और क्यूँ कर रहा है, इसका उसे पता ही नहीं रहता है।धर्म की सीमा वहीं तक रहनी चाहिए जिसमें सामाजिक व्यवस्था में अनुशासन कायम रहे।धर्म का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिसमें लोगों के बीच प्रेम और सौहार्द बना रहे।सामाजिक मर्यादा के लिये धर्म का होना बहुत जरूरी है।मंदिर में घंटी बजा लेना या मस्जिद में सिर्फ नमाज़ भर अदा कर लेना धार्मिकता नहीं है  अपितु आप अपने आचरण से किसी को कितना सुख प्रदान कर रहे हो, ये वास्तविक धर्म है।
धर्म की परिभाषा ही यहीं है कि अगर आप धार्मिक है तो आपका आचरण सबके लिए आनंददायक हो।मैंने ऐसे लोगों को भी देखा है जो मंदिर से निकलकर बाहर कोई जानवर या कुत्ता बैठा हुआ है तो उसको बेवजह मारते हुए।भाई ये कैसी पूजा है।उसी तरह पहले मंदिरों में समाज के कुछ वर्ग का प्रवेश वर्जित था , इसलिए वह भी पूजा नहीं था।कोई भी धर्म अगर धर्म है तो वह इंसान के बीच घृणा की इजाज़त नही दे सकता है।धर्म की बुनियाद ही इंसानों के बीच प्रेम का है।जो धर्म ये करने में सक्षम नहीं है । वह कभी भी धर्म हो ही नहीं सकता।
पूर्व में हिन्दू समाज में बहुत सी कुरीतियां उत्पन्न हो गई थीं जिसे अब सुधारा जा रहा है और आगे भी इसमें और सुधार करने की आवश्यकता है। अभी भी हमारा हिन्दू समाज जातियों में बंटा हुआ है, जो सबसे अधिक चिंता का विषय है।राजनीतिक फायदे के लिए इसमें और गहरी खाई पाटी जा रही है।आरक्षण के नए नए रूप ईजाद करके जातियों के बीच वैमनस्य का बीजारोपण किया जा रहा है ।
आने वाले समय हिन्दू समाज में एक अलग तरह की जातीय संघर्ष होने की संभावना है।अभी हम लोग छुआ छूत की सामाजिक विषमताओं से बाहर ही निकल पाएँ कि पुन: समाज एक अलग संघर्ष में घिरने वाला है।भारत में धार्मिक आधार पर संघर्ष तो चलते रहने वाला है लेकिन उसके साथ ही हिंदुओं में आपसी संघर्ष  होते रहने की गुंजाइश बरकरार रहेगी।
आज हिन्दू धर्म के जितने भी समाज सुधारक हैं, उन्हें आगे बढ़कर आने की आवश्यकता है । सबसे पहले तो वे सारी परम्पराएँ जिसका कोई वैज्ञानिक या तार्किक आधार नहीं है , उन्हें खत्म करना होगा।
हिन्दू धर्म में किसी भी कुरीतियों के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। हिन्दू धर्म को मौजूदा हालात के लिए परिभाषित करने की आवश्यकता है  जिससे आज का युवा वर्ग अपने आप को आत्मसात कर सके। आज का युवा वर्ग धर्म के नाम पर डीजे के कर्कश आवाज पर रोड पर डांस करते हुए नजर आते हैं।धार्मिक गाने के बोल भी ऐसे होते हैं जिसमें भगवान की मर्यादा ही खत्म हो जाती है।
हमारे यहाँ धार्मिक आयोजन एक रंगा रंग कार्यक्रम होकर रह गया है।हम धर्म के नाम पर क्या कर रहे हैं, ये हमें ही पता नहीं रहता है। पितृपक्ष में हम अपने पितरों के नाम पर अपने अंदर की बुराइयों को नाश करने का प्रयास करें तो ये अपने पितरों के लिए सही श्रद्धांजलि होगी वरना केवल गाय, कुत्तों को खिला भर देने से कुछ हासिल नहीं होगा। आज हम 21 वीं सदी में प्रवेश कर रहे है और 18 वीं सदी की परंपराओं में घिरे हुए है। इस पर हम सभी को चिंतन करना होगा। [यह लेखक के निजी विचार है, इनसे सम्पादक का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। ]
– डॉ.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी

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