इस देश की राजनैतिक पार्टियों की यह कैसी मानसिकता है कि एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जिसने देश की आजादी में एक बहुत बड़ा योगदान दिया, उसे खलनायक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। इसमें कांग्रेस के उन नेताओं जिन्होंने आगा महल जैसे खुले दरवाजों वाली तथाकथित जेलों में पचासों नौकरों की सेवा शुश्रुसा के साथ अच्छे भोजन, अखबारों और लाइब्रेरियों के साथ जेलें काटीं और उनकी अगली नस्लों का सबसे बड़ा हाथ है। विभिन्न न्यायालयों के अनेक निर्णयों के बाद भी कांग्रेस के युवराज और अन्य दूसरी तीसरी पीढ़ी के नेता इन निर्णयों को मानने के लिए तैयार नहीं हैं और उलटे उन्हें माफ़ी मांगने वाला और अंग्रेजों से पेंशन लेने वाला बताकर उन्हें आजादी की लड़ाई का दुश्मन सिद्ध करने की भरसक चेष्ठा की जाती है। अखबारों में लेख छपवाये जाते हैं भले ही बाद में अखबार को माफ़ी मांगनी पड़े। आज आपको एक ऐसे ही प्रकरण से अवगत कराते हैं।
एक भारतीय पत्रिका ‘द वीक ने 14, मई 2021 को स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर के बारे में पहले प्रकाशित एक अपमानजनक लेख के लिए माफी माँगी थी। यह विवादास्पद लेख 24 जनवरी, 2016 को केरल संस्करण में प्रकाशित किया गया था जिसे निरंजन टाकले द्वारा लिखा गया था।’ए लैम्ब, लायोनाइज्ड शीर्षक से लेखक ने पाठकों को यह गलत धारणा परोसी कि वीर सावरकर एक ‘डब्बू मेमना थे जिनकी प्रतिष्ठा को केंद्र में भाजपा सरकार द्वारा शेर के कौशल से मेल खाने के लिए किस तरह ऊपर उठाया गया था। स्मरणीय है कि जब उन्हें अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की सेलुलर जेल भेजा गया था, तब उनकी उम्र मात्र 28 वर्ष थी। उन्हें गर्दन की बेडिय़ों, क्रॉस-बार लोहे की बेडिय़ों से भी जकड़ा गया था और कड़ी मेहनत करने के लिए मजबूर किया गया था। लेख में वीर सावरकर द्वारा सहन की गई यातना के प्रति सहानुभूति रखने के बजाय, उनके संघर्ष को कम करने के लिए उनकी दया याचिकाओं का बार-बार उल्लेख किया गया था। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों के खिलाफ इतनी कम उम्र में कैद होने के बावजूद निरंजन टाकले ने कांग्रेस के इशारे पर एक मुस्लिम इतिहासकार शमसुल इस्लाम के सन्दर्भ से लिखा कि सेलुलर जेल में बिताए गए समय ने उनके ‘साम्राज्यवाद विरोधी झुकाव को समाप्त कर दिया था। उन्होंने आगे दावा किया कि वीर सावरकर के अलावा किसी भी स्वतंत्रता सेनानी ने ‘अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण या समर्पण नहीं किया। लेख में यह भी कहा गया है कि वीर सावरकर महात्मा गाँधी की हत्या में शामिल थे।
सिर्फ इतना ही नहीं, लेखक ने आगे वीर सावरकर को धर्मांतरण, हिंदू राष्ट्रवाद के लिए जिम्मेदार ठहराने का प्रयास किया और उन पर हिंदू अलगाववाद को सही ठहराने का आरोप लगाया। उसने वीर सावरकर को ‘टू-नेशन थ्योरी के पहले प्रस्तावक होने के लिए भी दोषी ठहराया जिसे मोहम्मद अली जिन्ना ने अपनाया था। इतिहासकार शमसुल इस्लाम का हवाला देते हुए लेखक ने आगे आरोप लगाया कि वीर सावरकर ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भारत को धोखा दिया और अंग्रेजों का साथ दिया।
इस विवादित लेख पर वीर सावरकर के पोते रंजीत सावरकर द्वारा सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया और मुकदमे के बाद, पत्रिका को 14 मई, 21 को माफी माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा था। अपने माफी नोट में, द वीक पत्रिका ने लिखा, ‘विनायक दामोदर सावरकर से संबंधित एक लेख, जिसे 24 जनवरी, 2016 को द वीक में प्रकाशित किया गया था, जिसका शीर्षक ‘लैम्ब, आयोनाइज्ड था और कंटेंट पेज में ‘हीरो टू जीरो के रूप में उल्लेख किया गया था, उसे गलत समझा गया है और वीर सावरकर के उच्च कद की गलत व्याख्या को बयाँ कर रहा है।’ अंत में कहा गया, ‘हम वीर सावरकर को अति सम्मानित श्रेणी में रखते हैं। यदि इस लेख से किसी व्यक्ति को कोई व्यक्तिगत चोट पहुँची है, तो पत्रिका प्रबंधन खेद व्यक्त करता है और इस तरह के प्रकाशन के लिए क्षमा चाहता है।’
वीर सावरकर को लेकर ये बहुत बड़ा भ्रम फैलाया जाता है कि उन्होंने ‘दया याचिका फाइल कर माफी मांगी थी। सच बात तो यह है कि यह कोई मर्सी पिटीशन नहीं थी। ये सिर्फ एक साधारण पिटीशन थी जिसे हर राजबंदी से जेल के अधिकारी लिखवाया करते थे। वे स्वयं एक वकील थे उन्हें पता था कि जेल से छूटने के लिए कानून का किस तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं। उनको 50 साल का आजीवन कारावास सुना दिया गया था। तब वे 28 साल के थे। अगर वे जिंदा वहां से लौटते तो 78 साल के हो जाते। इसके बाद क्या होता उनका? न तो वे परिवार को आगे बढ़ा पाते और न ही देश की आजादी की लड़ाई में अपना सक्रिय योगदान दे पाते। उनकी मन:स्थिति थी कि किसी तरह जेल से छूटकर देश के लिए कुछ किया जाए। 1920 में उनके छोटे भाई नारायण ने महात्मा गांधी से बात की थी और कहा था कि आप पैरवी कीजिए कि कैसे भी ये छूट जाएं। गांधी जी ने खुद कहा था कि आप बोलो सावरकर को कि वे अंग्रेज सरकार को एक पिटीशन भेजें। मैं उनकी सजा खत्म करने की सिफारिश करूंगा। गांधी जी ने लिखा था कि सावरकर मेरे साथ ही शांति के रास्ते पर चलकर काम करेंगे, इसलिए इनको आप रिहा कर दीजिए। ऐसे में पिटीशन की एक लाइन लेकर उसे तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है।
अब आता है प्रश्न पेंशन का तो जेल से रिहा होने के बाद सावरकर को रत्नागिरी में ही रहने को कहा गया था। अंग्रेज उन पर नजर रखते थे। उनकी सारी डिग्रियाँ और संपत्ति जब्त कर ली गई थी। ऐसे राजबंदियों को जिन्हें ‘सशर्त रिहाई मिलती थी, उन सभी को जीवनयापन के लिए पेंशन दी जाती थी। उस समय अंग्रेजों की सोच यह थी कि हम आपको काम करने की छूट नहीं देंगे, आपकी देखभाल हम करेंगे।
एक ऐसे महान क्रांतिकारी का नाम इतिहास के पन्नों से मिटा दिया गया जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दी गयीं इतनी यातनाएं झेलीं कि उसके बारे में कल्पना करके ही इस देश के करोड़ों भारत माँ के पुत्रों में सिहरन पैदा हो जायेगी।
वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें? विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी। सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया। वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में बैरिस्टरी परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफ़ादार होने की शपथ नहीं ली। इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नहीं दिया गया।
वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ‘सिपोय ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को ‘1857 का स्वातंत्र्य समर नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया कि वह गदर नहीं, संग्राम था। वे पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे जिनके लिखे ‘1857 का स्वातंत्र्य समर पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया दिया था।
सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नहीं मिला और बंदी बनाकर भारत लाया गया। वे पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी।
वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सज़ा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक आज़ादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पोंड तेल प्रतिदिन निकाला था। कांग्रेसी शासन की विडम्बना देखिये वीर सावरकर को जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद ससम्मान रिहा कर दिया था। निर्णय आपके हाथ में है कि सावरकर स्वतंत्रता सेनानी थे या वह जो कांग्रेस कहती है।
-राज सक्सेना