काल बड़ा कराल है। यह सम्पूर्ण प्राणियों से भी बलवान है। हाथों के समान पराक्रमी है। अभिमान से फूले हुए मनुष्य के मनरूपी वन में निवास करता है।
शुभ और अशुभ कर्म फल इसके दो दांत हैं और प्राणरूपी पत्तों को यह काल अपने दोनों दांतों से नष्ट कर देता है। प्राणी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, किन्तु मृत्यु है क्या जिसके नाम से ही मनुष्य भयाकांत हो जाता है। माता-पिता व सम्बन्धी दुखी हो जाते हैं, वास्तव में मृत्यु कुछ भी नहीं है।
जब आत्मा अमर है तो मृत्यु कैसी। काल आत्मा का कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता। जिसे हम मृत्यु कहते हैं उसमें आत्मा केवल शरीर का त्याग करती है। यह शरीर जिन पंच तत्वों से निर्मित हुआ है वे दाह संस्कार के पश्चात अपने-अपने अस्तित्व में विलीन हो जाते हैं।
अग्रि के परमाणु अग्रि में, प्राण वायु में, जल के परमाणु जल में, पार्थिव तत्व पृथ्वी में, आकाश तत्व अन्तरिक्ष में। ये भी नष्ट होने वाले नहीं है। इसीलिए मृत्यु इनकी भी नहीं। वास्तव में हमारे सम्बन्धों की मृत्यु होती है। इस शरीर से जिसका जो सम्बन्ध था वह टूट जाता है।
उसी की मृत्यु होती है, ये सम्बन्ध ही काल के गाल में समा जाते हैं, जो व्यक्ति अशुभ कार्यों से विरक्त रहता है, वह मृत्यु को याद तो रखता है, किन्तु उससे भय नहीं खाता, क्योंकि वह जानता है कि जिसे मृत्यु कहा जाता है, वह निश्चित है, अटल है। उससे डरेंगे तब भी आयेगी, फिर उससे भयभीत क्यों रहे।