प्रेम एक अनुभव है, जिसे करके ही जाना जा सकता है। इसकी कोई व्याख्या, विवेचना एवं विशलेषण सम्भव नहीं है। प्रेम होता है, बस इसके आगे कुछ नहीं कहा जा सकता। इसके होने का अहसास बड़ा ही खूबसूरत और कोमल होता है।
प्रेम बुद्धि एवं मन का विषय नहीं है और न इनके आइने से इसे प्रतिबिंबित ही किया जा सकता है। यह तो हृदय का पुलकित एवं संवेदित भाव है, जो शब्दों की अभिव्यक्ति में अभिव्यक्त होता है। प्रेम की अभिव्यक्ति शाब्दिक होकर भी अशाब्दिक है, बोलकर भी अबोल है, कहकर भी अनकहा है। प्रेम के स्पंदन जब दिल से स्पर्श होते हैं, तभी इन्हें शब्दाकार किया जा सकता है, पर प्रेम भला शब्दों में कैसे पिरोया जा सकता है।
प्रेम नदी की बहती धारा के समान है। जब नदी पहाड़ से होकर गुजरती है, तो बहाव से चट्टानों में दरार डाल देती है। नदी और पहाड़ का प्यार पुरातन काल से है। जैसे पहाड़ नदी से प्रेम करता है, नदी भी उतनी ही शिद्दत से पहाड़ से प्रेम करती है।
प्रेम कभी एकांगी और एक तरफा नहीं होता। एकांगी होती है अधूरी इच्छाएं जिन्हें प्रेम का नाम दे दिया जाता है। प्रेम तो पावन प्रवाह है, जहां से भी यह बहता, वहां पावनता एवं शीतलता का स्पन्दन, स्पर्श एवं सौंदर्य के रंग उडेल देता है।