विषय को विस्तार से समझने के लिए हमें ताज़ा राजनीतिक घटनाओं को समझना होगा। इस समय 2024 के चुनाव सर पर है। अनेक दलों में सीट बंटवारे की बात चल रही है । ऐसे समय में महाविकास आघाड़ी गठबंधन के नेता तथा वंचित बहुजन आघाड़ी के अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर ने मराठा आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहे मनोज जरांगे पाटिल को उनके गृह जनपद जालना से लोकसभा टिकट देने की मांग महाविकास आघाड़ी गठबंधन से की है। मनोज जरांगे इन दिनों मराठा आरक्षण की मांग को लेकर चर्चा में हैं। हालाँकि उन्होंने इस प्रकार की किसी संभावना से इंकार किया है पर राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है।
खबरों के अनुसार इस समय महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन हिंसक रूप विराट रूप ले चुका है। महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश की निगाहें इस ओर लगी है । मराठा समुदाय के लिए आरक्षण की मांग करते हुए 40 वर्षीय मनोज जरांगे पाटिल ने 2014 के बाद से कई आंदोलन किए हैं, जो ज्यादा चर्चा में नहीं रहे। उनके ज्यादातर प्रदर्शनों की गूंज जालना जिले से बाहर नहीं जा पाई। हाल में उनकी भूख हड़ताल ने महाराष्ट्र में हलचल मचा दी । हिंसक प्रदर्शनों के बीच मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने आंदोलनकारी नेता मनोज जरांगे से बातचीत की और मराठा समुदाय को कुनबी जाति की कैटेगरी में शामिल करने का वादा किया है। सीएम शिंदे के आश्वासन के बाद मनोज जरांगे पाटिल ने आमरण अनशन खत्म कर दिया व सरकार को ज्यादा निर्णय लेने का और दो माह का समय दे दिया।
मनोज जरांगे ने मराठा आंदोलन की मुहिम के बारे में जाने तो उन्होंने 2011 से यह मुहिम शुरू की। 2023 में अब तक उन्होंने 30 से ज्यादा बार आरक्षण के लिए आंदोलन किया। जरांगे को मराठा आरक्षण आंदोलन का बड़ा चेहरा माना जाता है। मराठवाड़ा क्षेत्र में उनका बहुत सम्मान है। 2016 से 2018 तक जालना में मराठा आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व भी मनोज जरांगे ने ही किया था। आइए जानते हैं कि कैसे सामान्य परिवार के साधारण युवक जरांगे इतने बड़े आंदोलन के इतना बड़ा चेहरा बन गए? कैसे उन्होंने पूरे राज्य की सियासत में उठापटक मचा दी?
42 साल के मनोज जरांगे पाटिल मूल रूप से महाराष्ट्र के बीड जिले के रहने वाले हैं। तकरीबन 20 साल पहले सूखे से त्रस्त होकर उनके पिता जालना के अंकुश नगर की मोहिते बस्ती में आकर बस गए थे। 4 बेटों में सबसे छोटे मनोज जरांगे आज मराठा समाज का बड़ा नेता बन चुके हैं। मराठा समुदाय के आरक्षण के प्रबल समर्थक मनोज जरांगे पाटिल अक्सर उन प्रतिनिधिमंडलों के हिस्सा रहे हैं, जिन्होंने आरक्षण की मांग के लिए राज्य के विभिन्न नेताओं से मुलाकात की है।
साल 2010 में जरांगे 12वीं क्लास में थे, तभी उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी। फिर वे आंदोलन से जुड़ गए। उन्होंने अपनी आजीविका चलाने के लिए एक होटल में भी काम किया। बीते 12 साल में जरांगे ने 30 से ज्यादा बार आरक्षण आंदोलन किया है। साल 2016 से 2018 तक भी उन्होंने जालना में आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व किया। शुरू में मनोज जरांगे कांग्रेस के एक कार्यकर्ता थे। राजनीति में भी हाथ आजमाते हुए उन्होंने जालना जिले के युवा कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे लेकिन विचारधारा के मतभेद के चलते जल्दी ही पार्टी से इस्तीफा दे दिया। बाद में मराठा समुदाय के सशक्तीकरण के लिए पार्टी से अलग होकर ‘शिवबा संगठन नाम की खुद की संस्था बना ली।
मनोज जरांगे के परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ खास नहीं थी। उनके परिवार में माता-पिता, पत्नी, तीन भाई और चार बच्चे हैं। जब संगठन चलाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे, तब उन्होंने अपनी 2 एकड़ जमीन बेच दी थी। मनोज के नेतृत्व में साल 2021 में जालना के पिंपलगांव में तीन महीने तक आरक्षण के लिए धरना दिया था। मराठा आरक्षण आंदोलन का केंद्र बन चुके अंतरवाली सराटी गांव के सरपंच पांडुरंग तारख का कहना है कि समाज के प्रति जरांगे का नि:स्वार्थ भाव उनकी लोकप्रियता का बड़ा कारण है। उन पर भरोसा करने की वजह है कि उन्हे पैसा नहीं चाहिए। उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए। उन्हें समाज के लिए काम करना है।
मनोज जरांगे के साथ पिछले सात आंदोलनों में साथी रहे पिंपल गांव के गणेश महाराज बोचरे बताते हैं कि मनोज की ईमानदारी सबसे बड़ी पूंजी है। उन्होंने कहा, ‘उनकी ईमानदारी हमारे दिल में घर कर चुकी है। समाज के लिए वो जो भी करते हैं, पूरे दिल और नि:स्वार्थ भावना से करते हैं। वो कभी समाज के काम में पीछे नहीं हटते। मनोज जरांगे की अनिश्चित भूख हड़ताल से उनकी जान को खतरा है, लेकिन ना तो पिता को और न ही उनकी पत्नी को इस बात की फिक्र थी। दोनों का यही कहना था कि वो समाज के लिए लड़ रहे है। समाज के युवकों को उच्च शिक्षा का मौका मिले, अच्छी नौकरी मिले … वो इसके लिए लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में परिवार के सभी लोग उनके साथ हैं।
गौरतलब है कि महाराष्ट्र की राजनीति और आरक्षण आंदोलन में मनोज जरांगे का उदय आठ साल पहले गुजरात में ‘पाटीदार अनामत आंदोलन के रूप में अनाम से चेहरे हार्दिक पटेल के चमत्कारी नेता के रूप में उदय से काफी कुछ मेल खाता है। यह बात अलग है कि बाद में हार्दिक खुद राजनीति के शतरंज का मोहरा बन गए और आज वो उसी भाजपा से विधायक हैं, जिसके खिलाफ उन्होंने कभी समूचे गुजरात को हिला दिया था। अब मनोज जरांगे का हश्र क्या होता है, यह देखने की बात है लेकिन यह मानने में हर्ज नहीं है कि आज महाराष्ट्र में गुजरात ही खुद दोहरा रहा है। इसके विपरीत मनोज जरांगे का सियासी सफर ज्यादा संघर्ष और चुनौती से भरा है। वो अपनी मांग पर अड़े हैं और सरकार को डर है कि जरांगे ने अनशन चलते रहे तो प्रदेश में मराठा और ओबीसी जातियों में आरक्षण को लेकर संघर्ष सड़कों पर आ सकता है।
दरअसल, मराठा भी कोई एक जाति न होकर समुदायों का समुच्चय है। जरांगे की मांग के मुताबिक यदि सरकार मराठों को कुणबी होने का प्रमाण-पत्र देती है तो पहले से ओबीसी में शामिल कुणबी मराठा समुदाय विरोध में उठ खड़ा होने को तैयार है। ओबीसी नहीं चाहते कि मराठों को उनके आरक्षण कोटे में हिस्सेदारी दी जाए।
ध्यान रहे कि इस देश में जातिवादी राजनीति का आरक्षण एक ब्रह्मास्त्र है क्योंकि यदि आरक्षण को हटा दिया जाए तो जातिवादी राजनीति महज एक जाति आधारित वोटों की गोलबंदी या फिर समाज सुधार के सात्विक आग्रह रूप में शेष रहती है। भारतीय समाज और खासकर हिंदुओं में सामाजिक न्याय के तहत संविधान में दलित व आदिवासियों के लिए जिस आरक्षण का प्रावधान किया गया था, उसने अब मानों यू टर्न ले लिया है।
पहले माना जाता था कि जाति व्यवस्था के कारण विकास की दौड़ में पीछे रही जातियों और समुदायों को सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों व राजनीतिक आरक्षण देकर उन्हें प्रगत समुदायों के समकक्ष लाया जा सकता है और सामाजिक समता का एक लेवल कायम किया जा सकता है।दरअसल, वोटों की राजनीति ने सामाजिक समता के इस काल्पनिक माडल को जल्द ही सरकारी रेवड़ी और राजनीतिक प्रभुत्व की चाह में तब्दील कर दिया, इसीलिए समाज की मध्यम जातियों ने पहले ओबीसी के तहत आरक्षण मांगा और मिला। अब वो जातियां भी खुद को पिछड़ा कहलवाना चाह रही हैं जो सत्तर साल पहले आरक्षण को राजनीतिक दान समझ कर हिकारत के भाव से देखती थीं।
अब विडंबना है कि आज महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार, राजस्थान में गुर्जर और हरियाणा में जाट आरक्षण की मांग इसी संवैधानिक जातीय अवनयन में अपने सामाजिक उन्नयन की राह बूझ रही हैं।आरक्षण का लालीपाप अब उन जातियों को भी तीव्रता से आकर्षित कर रहा है, जो सदियो से समाज में श्रेष्ठताभाव में जीने की आदी रही हैं यानी अब यदि उन्हें भी आरक्षण मिले तो वो किसी भी जाति के नाम का आवरण ओढऩे के लिए तैयार हैं। इसका अर्थ इन जातियों में सामाजिक समता को लेकर कोई बुनियादी मानसिक बदलाव का होना नहीं है, केवल आर्थिक बेहतरी और राजनीतिक सत्ता पाने की तात्कालिक स्वार्थसिद्धी ज्यादा है। इसी का नतीजा है कि आरक्षण की राजनीति में अब नए और समाज की निचली पायदान से आने वाले खिलाडिय़ों की गुंजाइश बन रही है। यह उस स्थापित नेतृत्व के प्रति जनता का गहरा अविश्वास भी है, जो आरक्षण के फुटबाल को इस पाले से उस पाले में ठेलते रहे हैं।
-अशोक भाटिया