हम स्वर्ग-नरक की कल्पना किसी अन्य लोक में करते हैं, परन्तु यह यथार्थ नहीं। स्वर्ग-नरक अन्यंत्र नहीं इसी धरती पर है, जो सुख में है वे स्वर्ग में है और जो दुख पीड़ा भोग रहे हैं वे नरक में है। जैसे एक बच्चा जब जन्मता है तो उसे सुगन्धयुक्त जल से स्नान, दुग्ध पान आदि यथा योग्य प्राप्त होते हैं।
उसे प्रसन्न रखने को नौकर-चाकर, खिलौने, सवारी, उत्तम स्थान, लाड-प्यार और आनन्ददायक वातावरण मिलता है। जीवन में ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वह स्वर्ग में है। इसके विपरीत एक बच्चा निर्धन के घर में जन्मता है। नवजात को जो प्राप्त होना चाहिए उस हर वस्तु से वह वंचित रहता है। दूध, मिश्री, मेवे, फल आदि की बात तो छोडि़ए उसे ठीक प्रकार से भोजन भी नहीं मिलता।
दूसरों की देखा-देखी कुछ मांग भी कर दी और आग्रह किया तो पदार्थ के बदले पिटाई की सम्भावना अधिक होती है। सारा जीवन विपन्नता और कष्टों में व्यतीत हो जाता है। यही नरक है। मानव के अतिरिक्त अधिकांश योनियां भी तो नरक ही है। कुछ लोग इसे ईश्वर की इच्छा कहते हैं, जैसे ईश्वर बिना सोचे-समझे सबका प्रारब्ध लिख रहा है। हमें यह ज्ञान होना जरूरी है कि हमारे अच्छे-बुरे कर्म पाप-पुण्य की श्रेणी में आते हैं।
अगले जन्मों में पुण्य कर्मों से स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पाप कर्मों का फल अगले जन्मों में दुख अर्थात नरक भोगना पड़ेगा, पर ये स्वर्ग और नरक इसी धरती पर है। जब पाप की मात्रा बहुत अधिक होती है तो पशु-पक्षी, कीट आदि अधम योनियां प्राप्त होती हैं। उन योनियों में होते हुए एक अन्तराल के पश्चात साधारण मनुष्य के रूप में जन्म मिलता है। यह सब प्रभु इच्छा से नहीं हमारे कर्मों के आधार पर होता है। ईश्वर की भूमिका मात्र एक सच्चे न्यायाधीश की होती है।