प्राय: कुछ लोग ईश्वरीय कृपा पाने के लिए कठिन साधना करते देखे, सुने जाते हैं। कहीं कोई कई वर्षों से अन्न त्याग कर साधना कर रहा है तो कोई गुफाओं, कन्दराओं में जप-तप कर रहा है, तो कोई लाखों-लाखों मंत्र जाप कर रहा है।
ऐसी साधनाओं की चर्चा होती रहती है, परन्तु तत्वदर्शी विद्वानों का कहना है कि इन सारी साधनाओं से बढ़कर दूसरे के मन को ठेस न पहुंचाना, दूसरों का भरोसा न तोडऩा, किसी के साथ विश्वासघात न करना, किसी के साथ हिंसा न करना, दूसरों का किसी भी प्रकार से अहित न करना ही सबसे बड़ी साधना है।
ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है, जो अपने मन को साध चुका है और अपने मन के साथ छल-कपट नहीं करता। देखने में आता है कि बाह्य साधना करने वालों में अहंकार उत्पन्न होने लगता है। वे चाहते है कि आसपास के लोग उन्हें विशेष महत्व दें। ऐसा न होने पर उनमें क्रोध उत्पन्न होने लगता है। समाज में पद और कद का बड़ा महत्व है, कोई बड़ा ओहदा मिला नहीं कि लोग उस व्यक्ति को ऐसे महिमा मंडित करने लगते हैं, जैसे वह कोई साधारण मानव नहीं, बल्कि कोई अवतारी शक्ति है।
चोरों ओर जय-जयकार होने पर व्यक्ति का पद उस पर प्रभावी हो जाता है और उसका कद ‘छोटा’ हो जाता है, जिसके कारण उसकी मानवीय संवेदनाएं मरने लगती है, उसमें अहंकार आ जाता है, जो उसके पतन का कारण बन जाता है।