मनुष्य को प्रकृति की कृपा से जो प्राप्त है, उसके अतिरिक्त भी उसे कुछ चाहिए। भूख मिटाने को रोटी चाहिए, पहनने-ओढ़ने को वस्त्र चाहिए, रहने के लिए घर चाहिए और इनकी पूर्ति के लिए धन चाहिए, जिसे कमाने के लिए वह जीवन भर प्रयास करता रहता है।
पर्याप्त धन कमाने की आज्ञा वेद भी देता है, परन्तु बहुत अधिक धन कमाने की आज्ञा वेद की भी नहीं है, क्योंकि बहुत अधिक कमाने के लिए मनुष्य अनैतिक मार्ग ही अपनाता है। साथ ही, बहुत अधिक धन किसी के पास हो जाये तो वह धन उसकी उदारता को नष्ट कर देता है। इन धनियों को अपने चारों ओर दीन-दुखियों के, रोग-पीड़ितों के, अभावग्रस्तों के दर्शन होते हैं, परन्तु इनका हृदय इन्हें देखकर करूणा से नहीं भरता। वे अपने सुख को इन दुखियों में नहीं बांटते। ये अपनी अयोग्य संतानों के लिए तो धन संग्रह करते रहेंगे, परन्तु जो पात्र हैं, जिन्हें वास्तव में जरूरत है, उन्हें नहीं देंगे।
इस जगत में आपका कुछ भी नहीं। सब कुछ तो ईश्वर का है, उसी की देन है। ईश्वर की कृपा को हम अपनी तथा अपने परिश्रम द्वारा प्राप्त मान लेते हैं। इसी भूल के कारण हम अनेक पाप भी कर बैठते हैं। इसलिए परिश्रम से नेक नियति से ईमानदारी से जितना कमाओ, परन्तु उसका केवल संग्रह ही न करो। अपने लिए सदुपयोग करे और दीन-दुखियों की सहायता में भी लगाते रहे।
धन का अधिक संग्रह व्यक्ति को बोरा देता है, ऐसा व्यक्ति पुराने दिनों को भुला देता है, अहंकारी होकर दूसरों को हीन-नीच तथा छोटा मानकर उनका तिरस्कार करने लगता है। प्रभु इनकी बुद्धि को सद्बुद्धि बनाये रखे, ताकि ये पाप मार्ग पर जाने से बचे रहें।