जिस प्रकार भिखारी को प्रत्येक व्यक्ति अमीर और दानी दिखाई देता है और वह हाथ फैलाकर उससे मांगता है, उसी प्रकार असंतोषी व्यक्ति को अपने से अधिक दूसरे व्यक्ति अधिक धनी और सुखी दिखाई देते हैं। उसमें उन दूसरों के प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हो जाता है।
दूसरों से आगे बढ़ने का लोभ उसे किसी भी मार्ग से चाहे वह मार्ग कितना भी अनैतिक हो, से धन कमाने को उकसाता है। यदि प्रभु कृपा से उसे सद्बुद्धि आ जाये और लोभ हट जाये तो उसे भी सब मनुष्य एक समान लगने लगेंगे। आत्मपद प्राप्त संतोषी व्यक्ति की दृष्टि में न कोई अमीर है, न कोई गरीब है, न विशेष सम्मान योग्य न हेय और निकृष्ट। वह स्वयं को भी और साथ में दूसरों को भी श्रेष्ठ तथा उच्च पायेगा।
यह है आत्म ज्योति के आश्रय का चमत्कार, जिसको प्राप्त करने की योग्यता सभी को अपने भीतर पैदा करनी चाहिए। यह यथार्थ सभी को स्मरण रहना चाहिए कि संसार में आज तक कोई भी ऐसा नहीं हुआ जिसको धन से संतोष, आनन्द अथवा तृप्ति मिली हो। यदि संसार के सारे ऐश्वर्य भी हमें प्राप्त हो जायें तो भी हमारा मन तृप्त नहीं होगा।
हम इस संसार में कितना भी धन कमायें सुख के साधन प्राप्त कर लें, अन्त में सब यही छोड़कर चले जाना होगा। इसलिए अपनी आवश्यकताओं से अधिक को दान करना ही धन की सर्वश्रेष्ठ गति है। उससे मन को तृप्ति और सुख की प्राप्ति होगी।