अहिंसा का अर्थ समर्पण करना नहीं है और अत्याचार को चुपचाप सहना भी नहीं है। अत्याचार को समाप्त करने के लिए हथियार उठाकर अत्याचारी को समाप्त करना हिंसा नहीं वरन अहिंसा का पोषण ही है। ऋग्वेद के कुछ मंत्रों द्वारा हम अहिंसा की आत्मा तक पहुंचने में सक्षम हो सकते हैं।
‘ये युघ्यन्ते प्रधनेषु भूरासो ये तनुत्यज: ये वा सहृस्रदक्षिणास्ताश्चि देवापि गच्छात अर्थात जो संग्रामों में युद्ध करने वाले हैं, जो शूर वीरता से शरीर को त्यागने वाले हैं और वे जिन्होंने सहृस्रो दक्षिणाएं दी हैं तू उनकी गति को प्राप्त हो। आसंयतनिन्द्रण: स्वस्ति शत्रुतुर्याय ब्रहृतमि मृधाम् इस मंत्र में प्रार्थना की गई है कि ‘हे इन्द्र शत्रुओं को मारने के लिए हमें संयम वाला बहुत बड़ा और सदा बना रहने वाला कल्यासा दे।
अन्य मंत्र ‘विरक्षोविमृधो जहिवि वत्रस्यु हनुरज, विमन्यन्द्रि वृत्र हन्न मित्रस्थानिदासत: वेद के इस मंत्र में आदेश है कि हे वीर राक्षसों का संहार कर। हिंसक को कुचल डाल। दुष्ट शत्रुओं की दाढे तोड दे। जो तुम्हें दास बनाना चाहे उन वैरियो के क्रोध को चूर-चूर कर दें। वास्तव में हिंसा अथवा अहिंसा का सम्बन्ध मनोवृत्ति से है।
एक कुशल डाक्टर रोगी का पेट चीरता है, टांग काट देता है, दांत उखाड़ देता है अन्य आपरेशन करता है और ऐसा करते रोगी की मृत्यु भी सम्भव है। सच्चा फौजी युद्ध में देश के शत्रुओं को मारता है तो वह हिंसा नहीं करता अपितु शत्रुओं से देश की रक्षा कर पुण्य का भागी होता है। ‘सेना दिवस पर भारतीय सेना को समर्पित