जैसे माता-पिता बच्चे के प्रेम के मोहताज नहीं वैसे ही ईश्वर भी हमारे प्रेम का भूखा नहीं, हमारे प्रेम पर आश्रित नहीं वरन हम ही ईश्वर के प्रेम के आश्रित हैं। जैसे माता-पिता के प्रेम पर बच्चे आश्रित रहते हैं, माता-पिता बच्चों के प्रेम पर आश्रित नहीं तो इसका यह अर्थ नहीं कि माता-पिता बच्चों से प्रेम करते रहे और बच्चे उनकी परवाह न करे। प्रेम से प्रेम बढ़ता है। बच्चे माता-पिता से जितना अधिक प्रेम करेंगे, उतना ही अधिक उन्हें भी प्रेम मिलेगा।
यही बात अक्षरश: ईश्वर से प्रेम करने के सम्बन्ध में समझी जाये। यदि हम अपना तन-मन-धन सब उसको समर्पण कर दें, मनसा वाचा कर्मणा उसी को समर्पित हो जाये, तब तो हमें परमपिता परमात्मा का सारा वैभव मिल जाये, परन्तु वैभवासक्ति में भूले हुए कुछ अज्ञानी इन बातों पर विश्वास नहीं करते। मनुष्य यदि भगवान को समर्पित हो जाये तो अपराध एवं पाप रहेंगे ही नहीं। कोई किसी से घृणा, ईर्ष्या, द्वेष एवं क्रोध का भाव नहीं रखेगा न ही एक-दूसरे से भय खायेगा। किसी को किसी चीज की कमी न रह जायेगी। जैसे माता-पिता की प्रत्येक आज्ञा मानने वाली संतान सुख संतोष से रहती है, वैसे ही परमेश्वर के विधान, प्रेम और समर्पण भाव से रहने वाले लोग इस संसार में निश्चय ही सुखी और आनन्द से रहते हैं।