मन की शुद्धि अथवा किसी कामना की पूर्ति हेतु हम जप-जाप का सहारा लेते हैं, परन्तु जप-जाप के साथ भावना का मेल होना भी जरूरी है। जैसे कण-कण में रमने वाले भगवान के प्रति उसकी दया, कृपा और करूणा के स्मरण का भाव मन में आना आवश्यक है, वैसे ही प्रभु स्मरण करते-करते यह भाव मन में अवश्य आना चाहिए कि मैं पवित्र हो रहा हूं, शांत हो रहा हूं, प्रभु के प्रेम की वर्षा मुझ पर हो रही है, मैं कल्याण मार्ग पर अग्रसर हो रहा हूं। इस प्रकार जप-जाप से भक्ति सोपान चढ़ती है। मनुष्य सच्चे अर्थों में धार्मिक बन जाता है। उसमें अनुकूल और रचनात्मक परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देते हैं। यह सम्भव नहीं कि मनुष्य जप-जाप करे, जाप की भावना के अनुकूल धर्म का आचरण करे और पहले से बदला हुआ न हो, सच्चे अर्थों में धार्मिक न बन जाये। धार्मिक होने का अर्थ ही परिवर्तन की यात्रा पर चल पडऩा, रूपान्तर की ओर प्रस्थान कर देना, आध्यात्म की ओर पग बढ़ाना। आध्यात्म की यात्रा आरम्भ होते ही परिवर्तन अपने आप शुरू हो जायेगा। अपूर्व और अद्भुत आनन्द की अनुभूति होगी।