धर्म और नीति एक ही सत्य के दो छोर हैं तराजू के दो पलड़ों की भांति है। नीति विरूद्ध चलकर धर्म पालन असम्भव है। जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति का तो ऐसे में प्रश्न ही नहीं उठता। त्रेता युग में मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने भाई लक्ष्मण को, द्वापर में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को महात्मा विदुर ने दुर्योधन को कलियुग में महात्मा चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को, भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को यही सिखाया था कि नीतिवान बनो, अनैतिक और बुरे आचरण से दूर रहें, सत्य का साथ दें, सभी प्राणियों से प्रेम करें। कुटिल, कपटी, कुतर्की, धूर्त तथा चालाक व्यक्ति को नीतिज्ञ समझने की भूल कदापि नहीं करनी चाहिए। साम, दाम, दण्ड, भेद को नीति चतुष्टय कहा गया है, परन्तु यह नीति कूटनीति है, जो राजा के लिए है प्रजा के लिए नहीं, क्योंकि राजा को शासन चलाना है, वहां विशेष नीतियों का पालन राजा की बाध्यता हो सकती है, परन्तु प्रजा न तो अनैतिक मार्ग का अनुसरण करे न ही ऐसा करने वाले का समर्थन करे। उसे तो केवल सत्य का पक्ष ही लेना चाहिए। आज देश में राज तंत्र नहीं, प्रजा तंत्र है, लोकतंत्र है। इस लिए देश के प्रबुद्ध नागरिकों का दायित्व है कि वे शासन चलाने के लिए ऐसे प्रतिनिधि ही चुने जो देश और प्रजा के प्रति निष्ठावान हो, चरित्रवान हो राष्ट्र की सेवा में समर्पित हो।