सर्वविदित है कि जीवात्मा को यह मानव शरीर एक निश्चित अवधि के लिए प्राप्त हुआ है। उस अवधि तक ‘मैं’ अर्थात आत्मा इस शरीर और इसमें स्थित इन्द्रियों का स्वामी है। यह शरीर यदि इसके स्वामी आत्मा के आदेश पर चलता है तो हम सभी चेतना में जीवन जीते रहेंगे।
होशपूर्ण अवस्था में सतत जागृत अवस्था में जीवन चलता रहेगा, जब हम चाहेंगे अतीत में जायेंगे, जब चाहेंगे भविष्य में जायेंगे अथवा वर्तमान में रहेंगे। अभी हमें पता ही नहीं है। हमारा अधिकांश समय तो अतीत में या फिर भविष्य में ही निकल जाता है और इन दोनों के मध्य वर्तमान बीता जा रहा है। यह असंतुलन ही हमारे उलझाव का, हमारी भटकन का कारण है।
मन यदि संतुलित रहे तो इसके लिए आवश्यक है कि हम वर्तमान में रहे। वर्तमान के आते ही मन की मृत्यु हो जाती है। मन को जिंदा रखने के लिए अतीत या भविष्य की खुराक चाहिए। अतीत या भविष्य में विचार के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है। वर्तमान में विचार नहीं हो सकता। वर्तमान में तो मात्र साक्षी का भाव ही रहेगा। इसलिए वर्तमान में रहो, वर्तमान में जियो ताकि मन हावी न हो, तभी जीवन के यथार्थ का बोध हो पायेगा।