समस्त बुराईयों के मूल में मनुष्य का निजी स्वार्थ होता है और स्वार्थ का जन्मदाता मनुष्य का अज्ञान होता है। स्वार्थी व्यक्ति मानव जीवन की सच्ची उपलब्धियों और ईश्वरीय प्रसाद से वंचित ही रह जाता है। उसमें उत्तम चरित्र का अभाव ही रहता है। ऐसा व्यक्ति धन और नाम पाने की योजनाएं बनाया करता है।
उसके लिए वह वैसा भी मार्ग चुन सकता है। वह मार्ग अच्छा है या बुरा है, नैतिक है अथवा अनैतिक है यह उसके चिंतन का विषय नहीं होता। इसी कारण उसके कर्म ही उसे पाप गर्त में धकेल देते हैं। स्वार्थ मन को संकुचित तथा संकीर्ण बना देता है। मनुष्य में जब तक स्वार्थ के कारण ‘मैं’ और ‘मेरे’ की हीन ग्रंथि विद्यमान रहेगी वह उस सर्वव्यापक प्रभु की कृपा से मिलने वाली मन की शान्ति से वंचित ही रहेगा।
इसके लिए जिस पवित्र प्रेरणा की आवश्यकता है वह केवल नि:स्वार्थ सेवक और निष्काम कर्म योगी को ही प्राप्त हो सकती है। दीन-दुखियों के प्रति शाब्दिक सहानुभूति दिखाने वालों से तो दुनिया भरी पड़ी है, परन्तु जो अपने हिस्से में से किसी दूसरे को दे दे ऐसे त्यागी कोमल हृदयी लोग बिरले ही होते हैं।
दीन-दुखियों की सेवा धर्म है, नि:स्वार्थ सेवा चित्त के दोषों को दूर करती है। जो केवल अपने ही बारे में सोचता है वह स्वार्थी होता है और स्वार्थी किसी का भी प्रिय और सम्मान का पात्र नहीं हो सकता।