‘तेरा ही धरते ध्यान हम ऐसा हम परमात्मा से कहते तो हैं पर वास्तव में ध्यान उसका करते नहीें। इस सच्चाई को हमें स्वीकार करना होगा। हम जब भी ध्यान में बैठते हैं तो सोचिए ध्यान हमारा कहा रहता है, अपने परिवार में, बाजार में, अपने धंधे-रोजगार के हानि-लाभ की चिंता में, अपने मित्रों में ही तो रहता है।
परमात्मा में केवल वाणी रहती है। हम पूजा-पाठ करते, नमाज पढ़ते, मंदिर में परिक्रमा करते, गुरूद्वारे में गुरू वाणी सुनते, चर्च में बैल बजाते, शरीर से तो हम वहां होते हैं, परन्तु मन हमारा दुनियादारी में घूमता है। केवल जिह्वा और मुख ही परमात्मा का ध्यान करता है हम नहीं कर रहे हैं।
जब हम संसार के रचियता का ध्यान कर ही नहीं रहे हैं तो फिर कैसे होगा ध्यान। जब तक परमात्मा के स्वरूप का दर्शन ही नहीं किया तब तक ध्यान होगा भी कैसे। जैसे एक कुंवारी कन्या से कहा जाये कि पति का ध्यान करो तो क्या वह कर पायेगी, क्योंकि पति को तो उसने देखा ही नहीं।
मात्र कल्याण करने से ध्यान नहीं होगा, हां एक बार वह पति को साक्षात देख लेगी तो सरलता से उसके वास्तविक रूप का ध्यान कर सकती है। इसलिए पहले अपने भीतर विराजमान परमात्मा के दर्शन करे तब ध्यान करें।