भ्रमवश कुछ लोग तप का अर्थ वन में जाकर समाधि लगाना ही मान लेते हैं, किन्तु तप का शाब्दिक अर्थ देखा जाये तो पायेंगे कि कठोर परिश्रम से सत्कर्म के मार्ग पर चलने को ही तप कहा जाता है।
कर्म के तीन प्रकार है कर्म, अकर्म और विकर्म। कर्म वह है जो किसी पवित्र ध्येय के लिए किया जाये जो किसी के अधिकारों का हनन न करता हो। वह पूर्ण निष्ठा से सत्पुरूषार्थ से किया गया हो। अकर्म कर्महीनता या निष्क्रियता को कहा जाता है। इसे पाप की श्रेणी में रखा जाता है। विकर्म वह है जो धर्म और मानवता के विपरीत हो। विकर्म भी महापाप की श्रेणी में आता है। इसलिए हमें अकर्म और विकर्म से बचते हुए कर्म ही करना चाहिए।
यही तप है, जो लोग राजसत्ता और अधिकार सम्पन्न पदों पर बैठे हुए हैं उन्हें ऐसे कार्य करने चाहिए, जिससे समाज और देश की उन्नति हो। उन्हें निजिस्वार्थों को त्याग कर दूसरों के हितों का संरक्षण करना चाहिए। अपने कार्यों को तप की श्रेणी में लाना चाहिए। यदि वे कर्म की सच्ची परिभाषा को आत्मसात कर ले देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और हिंसा स्वयं समाप्त हो जायेगी।
हम सभी को अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर लेना चाहिए ताकि हम अपना बहुमूल्य समय अधिक से अधिक रचनात्मक कार्यों में लगायेें। अधिक धन और वैभवपूर्ण साधनों को अधिक एकत्र करने में न बडप्पन है और नहीं ये आवश्यक है, बल्कि इससे मन की शान्ति छिन जायेगी और हम जीवन के वास्तविक उद्देश्य से भटक जायेंगे।