Tuesday, April 22, 2025

अनमोल वचन

मानव योनि के कर्मों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक नैसर्गिक कर्म जैसे खाना-पीना आत्मरक्षा आदि। ये क्रियाएं जन्म लेने के साथ ही आरम्भ हो जाती हैं। आगे की क्रियाएं व्यक्ति (जीव) की विवेकशीलता पर आधारित होती है।

इन क्रियाओं से वह पाप तथा पुण्य अर्जित करता है। इन क्रियाओं में संदेवनाएं समाहित होती हैं। ये सभी क्रियाएं उसको संस्कारवान बनाती है।

शनै-शनै ये संवेदनाएं उसके स्वाभाव का अंग बन जाती है तथा वह अच्छे-अच्छे कर्म करके सत्य, निष्ठा, परोपकार, अहिंसा के मार्ग को अपनाता हुआ पुण्य अर्जित करता है और उसके शुभ फल का अधिकारी होता है।

दूसरे ऐसे मनुष्यों की संख्या में भी कोई कमी नहीं, जिनके पास विवेक और ज्ञान तो है, परन्तु अज्ञान की पर्त से ढका हुआ है। वे नैसर्गिक कर्म तो स्वाभावानुकूल करते ही रहते हैं, परन्तु संवेदनाएं जागृत न होने के कारण धर्म-अर्धम, पाप-पुण्य को नहीं समझ पाते तथा अपनी शारीरिक एवं मानसिक शक्ति का प्रयोग भौतिक सुख, आनन्द, सम्पत्ति अर्जित करने में ही लगा देते हैं।

मनुष्य खाली नहीं बैठ सकता कुछ न कुछ करना उसका स्वाभाविक है, क्योंकि कर्म सृष्टि का अनादि धर्म है। अब यह उसके विवेक पर निर्भर है कि वह कैसे कर्म करे, पाप कर्म करे या पुण्य कर्म करे।

यह भी पढ़ें :  अनमोल वचन
- Advertisement -

Royal Bulletin के साथ जुड़ने के लिए अभी Like, Follow और Subscribe करें |

 

Related Articles

STAY CONNECTED

76,719FansLike
5,532FollowersFollow
150,089SubscribersSubscribe

ताज़ा समाचार

सर्वाधिक लोकप्रिय