ओम विश्वानि देव सर्वितु दुरीतानि परासुव यद भद्र तन्न आसुव। मंत्र से प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु मेरे दुर्गणों, दुव्यर्सनों को समाप्त कर जो मेरे लिए शुभ और कल्याण कारक हैं वह मुझे प्रदान करें। मंत्र की भावना यह है कि हमारे दुर्गण दुर्व्यसन दूर हों, किन्तु दुर्गणों और दुव्यर्सनों को समाप्त करने कोई दूसरा नहीं आयेगा।
वे दुर्गण तथा दुव्यर्सन हमें स्वयं ही दूर करने होंगे। हम स्वयं ही उन्हें दूर करे और परमात्मा से केवल यह वितनी करे कि वह हम में इतना आत्मबल पैदा करें कि उन बुराईयों को दूर करने में मैं सक्षम बनूं। ऐसा बनने के लिए दृढ इच्छाशक्ति हमें अपने भीतर स्वयं ही पैदा करनी होगी। ऐसा होने पर ही जो हमारे लिए शुभ और कल्याणकारक होगा वह प्रभु हमें तभी प्रदान करेगा, परन्तु होता यह है कि हम अपने लिए सुख सुविधाएं प्राप्त करने के लिए कभी गणेश की स्तुति करते हैं। उसमें लाभ न देखकर उसके जाप बंद कर मां दुर्गा की स्तुति आरम्भ कर देते हैं।
कुछ समय बाद उससे कुछ प्राप्त न हुआ तो भगवान शंकर का जाप आरम्भ कर देते हैं। उससे भी जब कुछ प्राप्त न हुआ तो कुछ समय पश्चात हनुमान जी का जाप आरम्भ कर दिया, किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि बिना स्वयं में सुधार किये कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। हम मंत्र जाप के सहारे ही सब कुछ पाना चाहते हैं। इसी कारण वह सब कुछ हमें प्राप्त नहीं हो पाता और हम खाली हाथ रह जाते हैं।