संसार का हर प्राणी सुख की चाहत रखता है पर सुख उसी को मिलता है, जिसे संतोष करना आता है। एक जिज्ञासा उठती है कि संतोष है क्या? संतोष का अभिप्राय है इच्छाओं का त्याग। इच्छाओं का त्याग करके अपनी स्थिति पर संतुष्ट रहना ही सुख को प्राप्त कर लेना है। जीवन के साथ इच्छाएं, कामनाएं एवं आकांक्षाएं तो रहती ही हैं, परन्तु यह भी सत्य है कि सुखी जीवन के लिए हमारी इच्छाओं पर कहीं तो विराम होना चाहिए।
इच्छाओं के वेग में विराम को ही संतोष की संज्ञा दे सकते हैं। एक विचारक का यह मत है ‘संतोष मन की वह अवस्था है, जिसमें मनुष्य पूर्ण तृप्ति या प्रसन्नता का अनुभव करता है अर्थात इच्छा रह ही नहीं पाती।Ó जीवन को गति के साथ सम्पत्ति और समृद्धि की दौड़ से वह सुख नहीं मिलता जो संतोष रूपी वृक्ष की शीतल छांव में अनायास मिल जाता है।
हमेंं चाहिए कि हम प्रयत्न और परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली प्रसन्नता पर संतोष करना सीखे और यह संतोष ही हमारे सुख का आधार बनता है। शास्त्रोक यह उपदेश वाक्य सदैव स्मरणीय है ‘संतोषैव सुखस्य परम् निदानम्’ अर्थात संतोष ही सुख की सर्वोत्तम चिकित्सा है औषधि है।