जीवन में सफलता के दो मुख्य आधार हैं पुरूषार्थ और प्रारब्ध। प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्व के संचित कार्यों के आधार पर अपना भाग्य लेकर आता है, किन्तु उस भाग्य रेखा को यथावत समझना पुरूषार्थ के प्रति उदासीनता का भाव पैदा कर देता है। भाग्यवादी तो यही सोचेगा कि भाग्य के अनुसार मुझे जो मिलना है वह तो मिलेगा ही फिर अधिक भागदौड़ क्यों करूं? भाग्य रेखा को मिटाया तो नहीं जा सकता, किन्तु उसमें कुछ वृद्धि अथवा न्यूनता तो आ ही सकती है, यह हमारे पुरूषार्थ, सत्याचरण, उत्तरदायित्वों के प्रति समर्पण अथवा हमारी पुरूषार्थहीनता और पापाचरण के कारण से होती है, परन्तु जो यथार्थ है वह यह है कि पिछले जन्मों के संचित कर्मों के फल का परिणाम इस जन्म में भोगना ही पड़ता है। यदि हमारा पुरूषार्थ बना रहे तो विधाता द्वारा लिखे हमारे भाग्य के अनुसार ही हमें धन, यश, मान-प्रतिष्ठा की प्राप्ति होगी, किन्तु यदि हम पुरूषार्थहीन हो जाये तो निश्चित ही हमारे शुभ फलों की प्राप्ति में न्यूनता आ जायेगी। पुरूषार्थ का स्थान सर्वोपरि है, उसकी ओर से किंचित मुंह न मोड़े अन्यथा हम भाग्य को ही कोसते रह जायेंगे।