कुछ अज्ञानी कहते हैं कि स्त्री नरक का द्वार है। उस दृष्टि से तो पुरूष भी स्त्री के लिए नरक का द्वार है। यदि संसार से नरक के द्वार स्त्री-पुरूष दोनों को ही निकाल फेंका जाये तो फिर यहां रहेगा कौन? उचित यह है कि दोनों ही अपने-अपने स्थान यथा योग्य कर्तव्य पालन करते हुए आनन्द करे। कोई किसी की आलोचना न करे। सभी जीवों को अपने-अपने कर्मों के अनुसार शरीर प्राप्त है। जिस जीव को जो शरीर मिला है, उसके लिए वह ठीक है और यदि किसी वस्तु या व्यक्ति की निंदा की जाती है तो वास्तव में वह निंदा भगवान की की जाती है, क्योंकि इस ‘नरक के द्वार स्त्री को बनाने वाला ईश्वर ही तो है, वह अपने आप तो बना नहीं। रचना के सम्बन्ध में नियम यह है किसी भी बनी हुई वस्तु की कमी रचनाकार की कमी है, क्योंकि बनने वाली वस्तु तो जड़ है, उसकी निंदा स्तुति तो हो ही नहीं सकती, वह तो पराधीन है। जैसा किसी ने बनाया वैसी की बन गई, किन्तु उसकी न्यूनाधिकता का यश अपयश बनाने वाले पर निर्भर होता है। रसोईया ने रोटी कच्ची बनाई तो दोष रोटी का नहीं रसोईया का है। स्त्री को नरक का द्वार कहकर हम परमात्मा की निंदा कर स्वयं पाप के भागी बनते हैं और ऐसा कहने वालों को दंड का भागी होना चाहिए।