‘आत्मान प्रतिकूलानि परेषाम न समाचरेत’ उपनिषद के इस अंश का भाव यह है कि हम वही व्यवहार औरों से करें, जैसा हम अपने प्रति चाहते हैं, इसके विपरीत व्यवहार न करें।
जब हमारे अपने व्यवहार में प्रीति और सत्य होगा, सद्भावना होगी फिर क्यों समाज में झगड़े पैदा होंगे और क्यों विवादों का विस्तार होगा। जब झगड़ा नहीं होगा तो शान्ति रहेगी, भाईचारा रहेगा, आपस में प्यार बढेगा।
फलस्वरूप विकास को निरन्तरता मिलेगी, क्योंकि किसी समाज, गांव अथवा देश के विकास के लिए शांति परमावश्यक है।
कौवे की स्थिति से बात स्पष्ट हो जायेगी, एक कौवा जहां जाता लोग उसे भगा देते। दुखी होकर उसने इस समस्या का हल पूछा कि गुरू जी मैं जहां जाता हूं लोग पत्थर मारते हैं। मैंने कई जगह बदल ली, परन्तु मेरे प्रति व्यवहार में कोई अंतर नहीं।
गुरू बोले कांव-कांव छोड़ दे, सब ठीक हो जायेगा। यही दशा हमारी है, हम बात-बात पर और कई बार बिना बात ही झगड़े-फसाद पर उतारू हो जाते हैं। बात-बे-बात हम अप्रिय शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं, जिससे अनावश्यक विवाद पैदा हो जाते हैं।
इसका समाधान है, हमें सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथा योग्य व्यवहार करना चाहिए।