आज राजनीति दिशाहीन हो गई है, धर्म निरपेक्ष नहीं धर्म विहीन हो गई है। इसी कारण चहुं ओर अराजकता है, जनता में असंतोष है, क्रोध है, नैतिकता का अभाव है। कारण यह है कि हमने धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या ही त्रुटिपूर्ण की है। धर्म का अर्थ विशेष पूजा पद्धति को मान लिया गया है। सम्प्रदायों ने धर्म का स्थान ले लिया है। हम धर्म निरपेक्ष नहीं धर्म विहीन हो गये हैं। धर्म के मर्म को समझा ही नहीं गया है।
धर्म निरपेक्षता का अर्थ मात्र इतना ही है कि किसी सम्प्रदाय के साथ भेदभाव अथवा किसी प्रकार का पक्षपात न किया जाये। धर्म का सार यह है कि हमारे विचार हिमालय की भांति ऊंचे हो, गंगा जल की तरह पवित्र हो, किसी के प्रति राग-द्वेष पक्षपात न हो, आपसी व्यवहार में निर्मलता हो, जो व्यवहार आपको अपने साथ पसंद नहीं वह व्यवहार दूसरों के साथ भी न करो। देश से प्यार हो, जिसकी मिट्टी में पैदा हुए, जिसके अन्न-जल से पले-बढे, उसके प्रति निष्ठावान हो।
यदि राजनीति धर्मयुक्त होगी तो राजनीति साफ होगी, उच्च होगी, सेवाकारक होगी, राजनीतिज्ञों की भावनाएं पवित्र होगी, वे निष्ठावान होंगे, प्रजा के प्रति कत्र्तव्य भावना होगी, उनके दुख-दर्द और अभावों को दूर करने के प्रयास होंगे, किन्तु राजनीति धर्म विहीन हो गई, जबकि धर्मों में राजनीति अवश्य आ गई है। धर्म राजनीति विहीन रहना चाहिए। यदि राजनीति में धर्म का अभाव होगा और धर्म में राजनीति का समावेश होगा तो सर्वनाश निश्चित है।