केनोपनिषद का ऋषि जिज्ञासु की इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए कि ‘किसकी चाही हुई वाणी मनुष्य की जिह्वा और मुख बोलते हैं’ समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि बोलने का कार्य जिह्वा और मुख का नहीं है। शरीर और इन्द्रियों का भी नहीं है।
यदि ऐसा होता तो भूखा होने पर पात्र-कुपात्र के आगे समय-कुसमय का विचार किये बिना भोजन की याचना की जाती। कामुक आवश्यकता की पूर्ति के लिए किसी शील संकोच को आडे न आने दिया गया होता। बहुधा शरीर और मन की आवश्यकताओं को रोककर रखा जाता है।
अन्त:करण क्षुब्ध होने पर मुख से कटु वचन निकलते हैं और अनुकूल स्थिति में सुन्दर और अमृत वचन निस्तृत होते हैं। यदि वाणी स्वतंत्र होती तो वह अभ्यस्त शब्दों का ही उच्चारण करती रहती। वाणी से विष और अमृत, ज्ञान और अज्ञान निस्पृप्त करने वाली अन्त:चेतना उससे पृथक और स्वतंत्र है उसी का नाम ‘आत्मा’ है।