केनोपनिषद में जिज्ञासु पूछता है ‘केनेषितम पतितम, प्रेषितमन अर्थात मन किसकी प्रेरणा से दौडाया हुआ दौडता है। मन अपने आप कहां दौडता है। आन्तरिक आकांक्षाएं ही उसे जो दिशा देती हैं उधर ही वह चलता है, दौडता है और वापिस लौट आता है। यदि मन स्वतंत्र चिंतन में समर्थ होता तो उसकी दिशा एक ही रहती, सबकी सोच एक जैसी रहती, सदा एक ही प्रकार का चिंतन बन पडता, परन्तु लगता है पतंग की भांति मन को उडाने वाला भी कोई और ही है। उसकी आकांक्षा बदलते ही मस्तिष्क की सारी चिंतन प्रक्रिया ही उलट जाती है। मन एक पराधीन उपकरण है। वह किसी भी दिशा में स्वेच्छापूर्वक दौड नहीं सकता। उसको दौडाने वाली सत्ता जिस स्थिति में रह रही होगी चिंतन की धारा भी उसी दिशा में बहेगी। मन को दिशा देने वाली मूल सत्ता का नाम आत्मा है। आत्मा की प्रेरणा से ही मन दौडाया हुआ दौडता है।