आदमी के मनोभाव जब शिखर पर पहुंचते हैं तो वह बस आंसुओं के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। आंसू केवल दुख के कारण ही नहीं निकलते। दुख के अतिरिक्त करूणा में भी आंसू बहते हैं, अहो भाव में भी आंसू बहते हैं और कृतज्ञता में भी आंसू बहते हैं। आंसू तो बस अभिव्यक्ति है-भाव के शिखर पर चरम पर पहुंचने की। यह प्रतीक है कि भीतर कोई ऐसी घटना घट रही है, जिसको सम्भाल पाना कठिन है। तब वह ऊपर से बहने लगता है। आंखों से आंसू बनकर बह निकला है। आंसुओं का सम्बन्ध न तो दुख से है और नहीं सुख से। इनका सम्बन्ध तो बस भावों के अतिरेक से है। जिस भाव का अतिरेक होगा आंसू उसी को लेकर बहने लगेंगे। जब हृदय पर कोई चोट पड़ती है, जब किसी अज्ञात का मर्म भाव को छूता है, दूर अज्ञात की किरण हृदय को स्पर्श करती है, जब हृदय की गहनता में कुछ उतर जाता है, जब कोई तीर हृदय में चुभकर उसमें पीड़ा अथवा आह्लाद का उफान ला देता है तो अपने आप ही आंखों से आंसू बह निकलते हैं जिनके भाव गहरे हैं केवल उन्हीं के आंसू निकलते हैं। शुष्क हो गये भावों को आंसुओं का सौभाग्य नहीं मिलता। ये भाव यदि निर्मल है, पावन है तो इनके शिखर पर पहुंचने से जो आंसू निकलते हैं वे भगवान को भी विवश करते देते हैं।