प्रभु का स्मरण है जो उनकी शरण में आते हैं वे शोक रहित हो जाते हैं। इतना ही नहीं उनके समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। कल्याण चाहने वाले के लिए प्रभु की भक्ति अपरिहार्य है। भक्ति में स्वयं की कोई इच्छा नहीं होती, बल्कि समर्पण होता है, आज्ञा पालन होता है। निजी इच्छा होगी तो भक्ति हो ही नहीं सकती। भक्ति एक साधना है, जो श्रद्धा से संचालित और सत्संग से पुष्ट होती है। यह शरणनीति रूप है। साधना के विविध मार्ग समय, संयम, श्रम और तप चाहते हैं, जबकि भक्ति में केवल समर्पण चाहिए। भक्ति सब दुखों का क्षय कर देती है। इसे मुक्ति का हेतु भी कहा जाता है। उपनिषद, पुराण आदि के श्रवण, महापुरूषों के उपदेश और सत्संग से भक्ति का उदय होता है। सभी ने भक्ति को सर्वश्रेष्ठ माना है। अत: कल्याण चाहने वालों को सब समय सर्वभाव से निश्चित होकर परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए, किन्तु विडम्बना यह है कि जीव उस शरीर के प्रति अधिक जागरूकत है, जिसने माटी, जल, अग्रि आदि में समा जाना है, जो जाते हुए खबर भी नहीं देता कि मैं जा रहा हूं। इसकी रक्षा के लिए अनेक साधन जुटाये जाते हैं, यहां तक कि इसकी सुरक्षा के लिए बड़े-बड़े अनर्थ करने को तत्पर रहता है, परन्तु उस परमात्मा का ध्यान नहीं करता, जो इस शरीर के समाप्त होने पर भी साथ निभाता है।