अपने दुख से दूसरों को दुखी करना अपने दुख को बढाना है और दूसरों के दुख से दुखी होना अपने दुख को मिटाना है। दुख का भय अथवा कहे दुख की आशंका दुख से अधिक पीड़ाकारक है। इस भय से हम कर्तव्य अकर्तव्य को ही भूल जाते हैं और दूसरों के दुख में भागीदार होने के स्थान पर हम केवल अपने दुख के बारे में ही सोचते रहते हैं। कामनाओं की पूर्ति में लगे रहना दुख है। आपूर्ति में आये व्यवधान से व्याकुल होना दुख का भोग है, जबकि उनसे विरक्त रहना सुख है। दुख स्वयं न प्रशंनीय है और न निंदनीय। यदि हम दुख को भोगते हैं तो दुख अभिशाप है। यदि हम दुख के प्रभाव से सजग हैं तो दुख वरदान भी है। हमारी सजगता हमें दुख की अनुभूतियों से मुक्त कर देगी। किसी को बुरा मत समझो, किसी को बुरा मत बोलो, किसी का बुरा मत चाहो, किसी का बुरा मत करो, क्योंकि बुराई करने वाला स्वयं दुखी रहता है और दूसरों को भी दुखी करता है। मन को निर्मल बनाये रखे, क्योंकि निर्मल मल में ही प्रभु का वास होगा और जहां प्रभु का वास होगा, वह सदा सुख का ही अनुभव करेगा। दुखों से वह दूर रहेगा। सभी के लिए वह शुभ की सोचेगा और प्रभु उसके लिए शुभ की सोचेगा।