व्यक्ति में आकांक्षा होना स्वभाविक है। यह एक आन्तरिक ऊर्जा है, जो हमें लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रेरित करती है। इसी प्रेरणा की सामर्थ्य से हम लक्ष्य साधन हेतु उद्यम करते हैं, पुरूषार्थ करते हैं। आकांक्षा का महत्वाकांक्षा बनने की सीमा तक तो उचित है, किन्तु यह महत्वाकांक्षा जब अतिमहत्वाकांक्षा में परिवर्तित हो जाये तो उसमें विकृत्तियां आने लगती है।
अतिमहत्वाकांक्षी व्यक्ति येन-केन प्रकारेण अपने लक्ष्य तक पहुंचना चाहता है। अतिमहत्वाकांक्षी में केवल स्वहित निहित होता है। इसमें परहित के लिए सभी कपाट बंद हो जाते हैं। महत्वाकांक्षा मन में जन्म लेती है, मन चंचल होता है, इसमें स्थिरता की सम्भावना कम रहती है, इसका प्रभाव महत्वाकांक्षी व्यक्ति पर स्पष्ट दिखाई देता है, वह व्यक्ति दुख भी उठाता है, यह तब होता है जब उसकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होती।
अपूर्ण महत्वाकांक्षा के चलते मानसिक रूप से व्याकुल रहने लगता है। इससे उसके भीतर तनाव जन्म ले लेता है। ऐसे व्यक्ति हिंसक भी हो उठते हैं। वास्तव में अतिमहत्वाकांक्षा की भट्टी में स्वयं को जलाकर श्रेष्ठता की सूचि में स्थान प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले को सच्ची सफलता हाथ ही नहीं लगती। स्वयं अपने हितों के साथ-साथ अन्यों के हितों के लिए अतिमहत्वाकांक्षा से दूरी बनाकर रखें।