अछिपे और अखोये को नहीं खोजा जा सकता। स्मरण रहे परमात्मा न कहीं खोया है और न कहीं छिपा है। वह तो आपकी अन्तरात्मा में विराजमान है। परमात्मा सब ओर है, कण-कण में विद्यमान है। हम परमात्मा में ही जी रहे हैं वह हमारे निकटतम है, हम सब उसी के अंग है।
हमारे भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे , दांये-बांये सब ओर वही उपस्थित है, परन्तु हम उसे देख नहीं पाते। उसे हम अनुभव नहीं कर पाते। आंख दूर तक देख लेती है पर वह स्वयं को नहीं देख पाती। दिखाई पडऩे की स्थिति तब आती है, जब दृश्य और दृष्टा में दूरी हो। जहां दूरी समाप्त हो जाती है वहां दिखने में समस्या बनी रहती है।
निकटतम होते हुए भी हम उसे दूर-दूर खोजते हैं। स्मरण रहे परमात्मा कहीं दूर नहीं है, वह आपके अन्तर्मन में विराजमान है। संसार के प्रत्येक जीव में वह मौजूद है, पर हमने उसे विस्मृत कर दिया है, हम भूले बैठे हैं। स्मरण भर ही तो जगाना है। स्मरण जागते ही इसमें और उसमें दूरी समाप्त हो जायेगी।
कहीं कोई अलगाव नहीं रह पायेगा। बहुधा हम एक शब्द ‘सुमिरण’ को सुनते भी हैं और बोलते भी रहे हैं। प्रचलित अर्थों में इसका तात्पर्य माला जपना, पूजा-अर्चना करना पर भूल में इसका अर्थ है स्मरण। परमात्मा का स्मरण जग जाये तो ‘सुमिरण’ का अर्थ पूरा हो जायेगा।