संसार में जितने भी प्राणी हैं वे सभी प्रभु के अंश हैं अर्थात सभी जीव परमपिता परमात्मा की संताने हैं। इस यथार्थ को भूलकर हम कुछ कार्यों में स्वयं को कमजोर तथा अक्ष्म महसूम करते हैं, अपने संकल्पों को पूरा करने के स्थान पर लड़खड़ा जाते हैं और अपनी इस दुर्बलता को छिपाने के लिए विकल्पों का सहारा लेने लगते हैं। वास्तव में हम अपनी क्षमताओं को जान ही नहीं पाते।
सभी को इस सत्य को स्मरण रखना चाहिए कि हम निर्बल नहीं है, छोटे नहीं है, हम अयोग्य भी नहीं हैं, क्योंकि सर्वशक्तिमान प्रभु हमारे भीतर विराजमान है और सर्वशक्तिमान का अंश चाहे कितना भी लघु हो दुर्बल नहीं हो सकता।
अनेकानेक संकल्पों को समझने की, साधने की आवश्यकता नहीं। एक बूंद में सागर मौजूद है, पूरे सागर का सार उस एक बूंद से ही ज्ञात हो जायेगा। एक साधै सब साधै इसलिए एक बूंद का रहस्य पकड़ लिया, पूरा सागर पकड़ में आ जायेगा। इसी प्रकार एक संकल्प पूरा कर लो, एक की साधना कर लो आधी अधूरी नहीं पूर्ण साधना वही पर्याप्त है।
प्रेम करने का संकल्प किया तो सभी से प्रेम करो, एक-एक पदार्थ को एक-एक प्राणी को प्रेम करो अथवा फिर सत्याचरण का संकल्प करो तो फिर सत्य मय ही हो जाओ। झूठ एवं कृत्रिमता का कोई स्थान न हो। प्रेम और सत्याचरण के संकल्पों में कहां स्थान है घृणा का? कहां स्थान है ईश्वर का? कहां स्थान है क्रोध अथवा कहां स्थान है अन्य किसी दुर्गण का?