आजादी के समय से खादी से तात्पर्य गरीबों का आरामदायक व सस्ता कपड़ा हुआ करता था। गांधी और खादी एक-दूसरे के पूरक थे। इसी तर्ज पर गांधी आश्रमों का विस्तार हुआ जिनका मुख्य उद्देश्य हाथ से बने खादी कपड़े एवं खादी वस्त्रों की खरीद-बिक्री करना था, ताकि देश की गरीब जनता, मध्यम वर्ग को रोजगार एवं उचित दामों पर सस्ता व आरामदायक कपड़ा-वस्त्र उपलब्ध हो सके।
गांधीजी का सपना था कि घर-घर चरखा/हथकरघा हो, जिससे खासकर ग्रामीणों को रोजगार मिले और जनता को सस्ता व उपयोगी कपड़ा मिले। सालों तक ऐसे ही होता भी रहा है, लेकिन वर्तमान में खादी का स्वरूप बदलता ही नहीं जा रहा है, बल्कि यूं कहिए कि काफी बदल गया है। अब खादी से तात्पर्य सस्ते कपड़े से नहीं है। अब यह राजनेताओं एवं उच्च वर्ग की पोशाक बनती जा रही है। जिसके दाम भी ऐसे कि आम आदमी तो खरीदने की सोच भी नहीं सकता। अब खादी में गुणवत्ता, सहजता के अलावा देखने में मखमली अहसास का होना आवश्यक हो गया है।
भौतिक युग की चकाचौंध के फैशन के दौर में खादी ने एक विशिष्ट स्थान ले लिया है। उच्च वर्ग व राजनेता वर्ग की पहचान बन गई है यह खादी। वर्तमान की खादी गांधीजी की मोहताज नहीं रही, न ही गांधी आश्रम। गांधी आश्रमों का स्वरूप बदलता जा रहा है। हाथ से बनी वस्तुओं की अपेक्षा सांठ-गांठ से बनी वस्तुओं की बिक्री पर जोर दिया जाने लगा है। गांधी आश्रमों से सस्ती खादी एवं हाथ से बने अन्य उत्पाद कम होते जा रहे हैं।
हाल ही में सहारनपुर के मेन घंटाघर पर स्थित नगर के सबसे बड़े गांधी आश्रम का पुनर्निर्माण हुआ। उद्घाटन से पूर्व ही वहां हंगामा हुआ कि श्री गांधी आश्रम की जगह सिर्फ ‘खादी नामकरण कर दिया गया था जिस पर नगर के बुद्धिजीवियों ने आवाज उठायी। तब जाकर खादी के ऊपर श्री गांधी आश्रम लिखा गया। थोड़े दिन बाद वहां जाने का मौका मिला तो देखा अन्दर सब एसी (वातानुकूलित) कर दिया गया था। सस्ते कपड़े एवं वस्त्र जो गांधी आश्रम की पहचान होते थे, गायब थे। 5 रुपये मीटर से शुरू खादी एवं ऐसे कपड़ों के महंगे वस्त्र उपलब्ध थे। भारी-भरकम कर्मचारियों की फौज तो थी, लेकिन ग्राहक को तसल्ली से बताना, दिखाना न पहले था, न अब दिखा। जो पूछा उसका जवाब देकर इतिश्री कर लेते हैं खादी के कर्मचारी। अपनी तरफ से ग्राहकों को लुभाना शायद उन्हें आता नहीं या बताया नहीं गया। इस हिसाब से लगता है शायद कुछ गांधी आश्रमों का खर्चा ज्यादा होगा, आमदनी कम।
सरकार को खादी पर फिर से जोर देना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में खादी के कारखानों को प्रोत्साहन देना चाहिए। घर-घर खादी बने, ऐसा माहौल तैयार करना चाहिए। खादी को अपने विशिष्ट कार्यक्रमों में शामिल कर खादी के उत्थान के लिए नये सिरे से प्रयास करने चाहिए। ऐसा करने से बेरोजगारों को रोजगार के साधन उपलब्ध होंगे एवं देश में गांधीजी के विचारों, संस्कारों का पुनर्जन्म होगा।
हम गांधीजी को भूलते जा रहे हैं। उनके विचारों, आदर्शों को अनदेखा करते जा रहे हैं, तभी तो देश से भाईचारा, दया, अहिंसा, की भावनाओं का लोप होता जा रहा है। खादी सिर्फ कपड़ा नहीं, बल्कि खादी तो गांधीजी की पहचान है। खादी गांधीजी का सपना है। खादी एक संस्कृति है। खादी एक परम्परा है। खादी एक विचारधारा है। खादी एक जीवनशैली है। खादी एक आन्दोलन है। खादी एक वातावरण है। खादी एक रोजगार का साधन है। खादी हमारे देश की पहचान है। खादी में भारतीयता है। खादी में अपनापन है। खादी में भीनी खुशबू है।
खादी में सुगंधित हवा है। खादी आम जनता की चाहत है। खादी राष्ट्र निर्माण में सहायक है। यह सब तभी संभव है, जब खादी आम जनता की खादी रहे। गांधीजी की खादी रहे। बेरोजगारों की खादी रहे। गरीब जनता की खादी रहे। ग्रामीणों की खादी रहे। गांधी आश्रम, गांधीजी के विचारों के आश्रम रहें। उन्हें मात्र उच्च वर्ग की खादी के स्थान न बना दिये जायें। गांधी आश्रम से बनी खादी व हाथ से बनी वस्तुओं के केन्द्र बने रहें, तभी गांधीजी की खादी जन-जन तक पहुंच सकेगी।
सुनील जैन ‘राना- विभूति फीचर्स