मनीषी कहते आये हैं कि सुख सदा संतुष्टि में है। असंतोषी कभी सुख का अनुभव कर ही नहीं सकता। असंतोषी व्यक्ति तो आने वाले जन्मों के लिए भी दुखों की जमा पूंजी तैयार कर रहे हैं।
इस जन्म में तो सुख का अनुभव वे कर ही नहीं पाते। संसार में जितनी भी ज्योतिष विद्या है, वह सारी हमारी 40 प्रतिशत संचित कर्मों पर ही आधारित है, 100 प्रतिशत पर आधारित यह विद्या नहीं है।
60 प्रतिशत तो हमारे इस जन्म के कर्मों पर निर्भर है। जैसा हम अपना जीवन बनाना चाहते हैं, वैसा हम बना सकते हैं। जैसे कर्म करते रहोगे वैसा ही फल मिलता रहेगा, क्योंकि 60 प्रतिशत तो आपको इसी जन्म के कर्मों का फल मिलना है।
सरल भाषा में कहे तो मनुष्य 60 प्रतिशत तो बाहर से ही जीता है और भीतर से 40 प्रतिशत। इसी कारण भीतर से असंतुष्ट और दुखी रहते हुए भी वह बाहर से प्रसन्न दिखाने का अभिनय करता है।
यदि हम इस अनुपात को उल्टा कर ले तो कुछ तो बात बन ही सकती है। इसका लाभ यह होगा कि हम आत्म संतुष्टि की ओर पग बढ़ा सकते हैं।