जब कोई महात्मा, साधु, संत, विचारक, संवेदनशील व्यक्ति चिंतन में होता है तो वह अपना और राष्ट्र दोनों का चरित्र बना रहा होता है। चिंतन मुक्ति का मार्ग है, चिंतन विकास का मार्ग है, चिंतन जीव की यात्रा में पडऩे वाले प्रभावों के आवागमन के चक्कर से निकालने का मार्ग है। सृष्टि का हर एक जीव सुबह उठते ही प्रभु का चिंतन करता है। पक्षी सुबह-सुबह अपने मधुर स्वर में प्रभु का गुणगान करते हैं, अपनी सुमधुर वाणी से हम मनुष्यों को जगाते हैं। प्रभु का चिंतन, वंदन, प्रार्थना करते हैं। वह सुबह से ही भोजन या शिकार की तलाश में नहीं रहते। दूसरा वह जितना खा सकते हैं उसे खाकर आगे की यात्रा पर निकल जाते हैं। संचित करना, किसी का हक मारना, किसी को दुख देना, इनका काम नहीं है। अपनी मस्ती में मस्त स्वतंत्र नभ में विचरण करते हैं।
एक मनुष्य ही ऐसा जीव है जो अपनी बुद्धि के बल पर अर्थ-अनर्थ करता रहता है। यह बात सभी मनुष्यों पर लागू नहीं होती पर अधिकतर तो ऐसा ही करते दिखाई देते हैं। विचार करें तो चिंतन दैहिक सुख नहीं, आध्यात्मिक सुख है। चिंतन परा और अपरा है। परंतु अब ना तो साधारण जन में चिंतन दिखता है और ना ही कोई सर्वसाधारण इस पर बात करता दिखता है। केवल बात का बतंगड़ बनता दिखता है। विचार करें तो बात या बातों को लेकर हिंदी में बहुत सारे मुहावरें और लोकोक्तियाँ हैं। बातें बनाना, बात बिगाडऩा या बिगडऩा, बातें ना मानना, बातों-बातों में, बात चली है तो दूर तक जायेगी, लातों के भूत बातों से नहीं मानते आदि। बात का बतंगड़ का अर्थ है- छोटी सी बात को अधिक बढ़ा देना। यह विचारणीय बात है कि बात का बतंगड़ भी सृष्टि में कोई भी जीव नहीं बनाता, केवल मनुष्य ही ऐसा करता है। वह बात-बात में टोका-टोकी कर एक दूसरे में कमी निकालता रहता है। स्वयं को कोई नहीं देख रहा है।
हम अपने समाज जीवन में रोजना कितनी ही ऐसी घटनाओं को देखते हैं, जिनका कोई हाथ पैर नहीं होता है। कोई एक आगे बढ़कर माफी मांग ले तो बात वहीं समाप्त हो सकती है। लेकिन हम हैं कि बात को मानने वाले ही नहीं है। गांवों में गली-नाली की सफाई को लेकर बात का बतंगड़ सुबह-सुबह ही दिखाई-सुनाई पड़ जाता है। गलियों में बच्चों का खेलना और शोर मचाने को लेकर पड़ोसियों का बात का बतंगड़ बना देना आदि। महानगरीय जीवन में कई बार तो बीच सड़क पर या फिर रेड़ लाइट पर कोई गाड़ी, गाड़ी से हल्की सी टकराई और बन गया बात का बतंगड़। लंबा जाम और दोनों में से कोई किसी की सुनने वाला ही नहीं। बात का बतंगड़ कई बार पार्क में भी दिखाई दे जाता है। व्यर्थ की बात पर चर्चा हुई और बतंगड़ बन गया। राजनीति में तो बात का बतंगड़ बनना साधारण सी बात हो गई है। कितने ही राजनेता कहते सुनाई दे जाते हैं कि मेरी बात को तोड़-मरोड़ कर दिखाया या बताया जा रहा है। जब तक स्पष्टीकरण आता है, तब तक बात का बतंगड़ बन चुका होता है।
हमें अपने समाज जीवन में छोटी-छोटी बातों को वहीं पर, उसी समय माफी मांग कर या उसका समाधान निकाल कर समाप्त कर देना चाहिए। उस बात को लेकर लंबा सोचने या लंबा घसीटने की जरूरत नहीं है। छोटे-छोटे प्रयास और छोटे-छोटे सुधार ही समाज में जागृति पैदा करते हैं। समाज को नया सोचने के लिए आकर्षित करते हैं। हमें देश के बारे में, समाज के बारे में, सृष्टि और जीवन के बारे में सोचना चाहिए। बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहिए, लोगों के जीवन में सुधार लाना चाहिए।
बात का बतंगड़
-डॉ. नीरज भारद्वाज