Friday, November 22, 2024

मुद्दा: कपड़ो की तरह दल बदल रहे है अवसरवादी नेता!

सन 2014 से अब तक 8 पूर्व मुख्यमंत्री पाला बदल चुके हैं। इनमें अशोक चव्हाण, कैप्टन अमरिंदर सिंह और नारायण राणे का नाम प्रमुख हैं। वहीं 20 से ज्यादा केंद्रीय मंत्री भी दलबदल के खेल में शामिल हुए। उत्तराखंड लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी भाजपा ने कांग्रेस के विधायक रहे राजकुमार को भाजपा में शामिल कर लिया था। इससे पूर्व धनौल्टी क्षेत्र के निर्दलीय विधायक प्रीतम सिंह पंवार को पहले ही भाजपा में शामिल किया जा चुका है।उत्तरकाशी जिले की पुरोला सीट से कांग्रेस विधायक रहे राजकुमार ने दिल्ली में भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी। राजकुमार ने भाजपा केंद्रीय नेतृत्व के सामने देहरादून की एक सीट से टिकट देने की शर्त रखी है जिसे स्वीकार करने पर ही दलबदल हुआ था। हाल ही में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने वर्षो पुरानी अपनी कांग्रेस पार्टी को छोड़कर भाजपा की सदस्यता ले ली और भाजपा टिकट पर राज्यसभा पहुंच गए। सन 2014 के बाद सबसे ज्यादा दलबदलू नेता बीजेपी में गए हैं। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 2014 से 2021 तक विधायक-सांसद स्तर के 426 नेताओं ने बीजेपी का दामन थामा है।
कांग्रेस में सिर्फ दलबदलू नेता शामिल हुए। 7 दिन में 4 राज्यों के दो दर्जन से ज्यादा नेताओं ने पाला बदल लिया है। दल बदलने वालों में पूर्व मुख्यमंत्री से लेकर महापौर स्तर के नेता शामिल हैं। राजस्थान कांग्रेस के विधायक महेंद्रजीत सिंह मालवीय ने भी हाथ का साथ छोड़कर कमल का दामन थाम लिया है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के करीबी और जबलपुर के मेयर जगत बहादुर अन्नू कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए है। भारत में दलबदल का खेल सन 1960-70 में हरियाणा से शुरू हुआ था। धीरे-धीरे यह सियासी रोग पूरे भारत में फैल गया। 2014 के बाद नेताओं के दलबदल के मामलों में काफी तेजी आई है।
भाजपा फिलहाल येनकेन प्रकारेण स्वयं को मजबूत करने के लिए विपक्षी विधायकों पर डोरे डाल रही है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष महेंद्र भट्ट तो खुले रूप में कांग्रेसी विधायकों को भाजपा में शामिल होने का आमंत्रण दे रहे है हालांकि अंदरूनी गुटबाजी के चलते भाजपा का खुद का कुनबा बिखरने के कगार पर है जिनमे कांग्रेस के बागी रहे और अब भाजपा के कभी भी भाजपा को बॉय बॉय बोल सकते है।
लोकसभा चुनाव नजदीक है, ऐसे में हर दल अपना कुनबा बढ़ाने में जुटा है। बसपा के सांसदों में हाथी से उतरने की होड़ मची हुई है। दो सांसदों ने जहां दूसरे दलों का दामन थाम लिया है। वहीं दो सांसदों ने राहुल की न्याय यात्रा में शामिल होकर नीला झंडा उतारने का संकेत दे दिया है। इसी हफ्ते पार्टी के कई सांसद दूसरे दलों में शामिल होने की घोषणा कर सकते हैं।बसपा के कुल 10 सांसद सन 2019 के लोकसभा चुनाव में जीते थे।इनका 2024 लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी से मोहभंग होने लगा है।अपने कार्यकाल के अंतिम साल ये सांसद बीजेपी, सपा और कांग्रेस नेताओं से संपर्क करने लगे। इनमें से 4 सांसद बीजेपी, 3 सपा और 3 कांग्रेस के संपर्क में हैं। इनमें से बसपा सांसद अफजल अंसारी का टिकट सपा ने फाइनल कर दिया है। सांसद रितेश पांडेय ने भाजपा का दामन थाम लिया है। इसके साथ ही पार्टी से निलंबित चल रहे सांसद दानिश अली कांग्रेस से मैदान में उतरने की तैयारी में हैं। वहीं श्याम सिंह यादव की सपा-कांग्रेस से नजदीकी काफी बढ़ गई है। इन्होंने भी न्याय यात्रा में शामिल होकर खुद को बसपा से अलग करने का संकेत दे दिया है।लालगंज की सांसद संगीता आजाद भी भाजपा में शामिल हो सकती हैं। बसपा सांसद मलूक नागर रालोद के संपर्क में बताए जा रहे हैं। सहारनपुर के सांसद हाजी फजलुर्रहमान का भी बसपा में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। बसपा के शेष बचे सांसद भी दूसरे दलों में भविष्य तलाश रहे हैं।
पीलीभीत से बीजेपी सांसद वरुण गांधी पिछले कुछ समय से अपनी सरकार की योजनाओं की खिलाफत कर रहे थे जिसके चलते बीजेपी के छोटे-बड़े नेताओं ने वरुण से दूरियां बना ली थी जिससे उनके टिकट कटने की चर्चा भी चल रही थी लेकिन इन सबके बीच अब फिर वरुण गांधी पार्टी नेताओं संग बैठे दिखाई देने लगे है।साथ ही वे पीएम मोदी की तारीफ करते भी नजर आए। माना जा रहा है कि बीजेपी और वरुण गांधी में सब कुछ ठीक हो गया है। इससे पहले वरुण कई मौकों पर अपनी ही सरकार को घेरते दिखाई दिए हैं। भारत अमृत योजना के तहत पीएम मोदी रेलवे स्टेशनों का वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए शिलान्यास कर रहे थे। इस मौके पर सांसद वरुण गांधी पीलीभीत रेलवे स्टेशन पर चल रहे कार्यक्रम में पहुंच गए। इस कार्यक्रम में बीजेपी के जिलाध्यक्ष संजीव प्रताप सिंह सहित तमाम पार्टी के कई नेता मौजूद थे। वरुण और बीजेपी जिला अध्यक्ष चार साल बाद एक मंच पर दिखे। दलबदल कानून में अगर कोई विधायक या सांसद ख़ुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है या फिर कोई निर्वाचित विधायक या सांसद पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ जाता है,अगर कोई सदस्य पार्टी व्हिप के बावजूद वोट नहीं करता,अगर कोई सदस्य सदन में पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है, तब विधायक या सांसद बनने के बाद ख़ुद से पार्टी सदस्यता छोडऩे, पार्टी व्हिप या पार्टी निर्देश का उल्लंघन दल-बदल क़ानून में माना जाएगा।अगर किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक या सांसद दूसरी पार्टी के साथ जाना चाहें तो उनकी सदस्यता ख़त्म नहीं होगी। सन 2003 में इस क़ानून में संशोधन भी किया गया। जब ये क़ानून बना तो प्रावधान ये था कि अगर किसी मूल पार्टी में बँटवारा होता है और एक तिहाई विधायक एक नया ग्रुप बनाते हैं तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी, लेकिन इसके बाद बड़े पैमाने पर दल-बदल हुए और ऐसा महसूस किया कि पार्टी में टूट के प्रावधान का फ़ायदा उठाया जा रहा है, इसलिए ये प्रावधान ख़त्म कर दिया गया।संविधान में 91वाँ संशोधन जोड़ा गया। जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक दल बदल को असंवैधानिक करार दिया गया।विधायक कुछ परिस्थितियों में सदस्यता गँवाने से बच सकते हैं। अगर एक पार्टी के दो तिहाई सदस्य मूल पार्टी से अलग होकर दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी।ऐसी स्थिति में न तो दूसरी पार्टी में विलय करने वाले सदस्य और न ही मूल पार्टी में रहने वाले सदस्य अयोग्य ठहराए जा सकते हैं।जब पूरी की पूरी राजनीतिक पार्टी अन्य राजनीति पार्टी के साथ मिल जाती है।अगर किसी पार्टी के निर्वाचित सदस्य एक नई पार्टी बना लेते हैं।
अगर किसी पार्टी के सदस्य दो पार्टियों का विलय स्वीकार नहीं करते और विलय के समय अलग ग्रुप में रहना स्वीकार करते है। जब किसी पार्टी के दो तिहाई सदस्य अलग होकर नई पार्टी में शामिल हो जाते हैं।10वीं अनुसूची के पैराग्राफ़ 6 के मुताबिक़ स्पीकर या चेयरपर्सन का दल-बदल को लेकर फ़ैसला आखिरी होगा। पैराग्राफ़ 7 में कहा गया है कि कोई कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया लेकिन पैराग्राफ़ 7 को असंवेधानिक कऱार दे दिया। आज नेताओं के बीच दलबदल जितना सहज और सरल हो गया है, वोटर के लिए नेता उतना ही अविश्वसनीय होता जा रहा है। किसी भी स्तर का चुनाव जीतने के बाद नेताओं के रहन-सहन में जो बदलाव लाता है, वह वोटर की निगाह से बच नहीं पाता। इसका असर विभिन्न स्तर के चुनावों में वोटिंग परसेंटेज में गिरावट के तौर देखा जा सकता है।
मध्यप्रदेश में हाल ही में संपन्न हुए स्थानीय निकायों के चुनाव के बाद ऐसे दृश्य बड़ी संख्या में देखने को मिले हैं, जिसमें जीत का प्रमाण पत्र मिलने के बाद निर्वाचित प्रतिनिधि ने उस दल को छोड़ दिया जिसके सिंबल पर वह चुना गया था।भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दलों को अपने नवनिर्वाचित जनप्रतिनिधियों को पाले में बनाए रखने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी थी, चुनाव के तत्काल बाद जिस तरह से निर्वाचित प्रतिनिधियों ने दलबदल किया उसके बाद वोटरों के बीच उसकी छवि पर भी विपरीत असर पड़ा है। दल बदल की बढ़ती प्रवृति लोकतंत्र के लिए भी घातक मानी जा रही है। देश के किसी भी राज्य में ऐसा कोई कानून नहीं है जो स्थानीय निकायों के निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को दलबदल करने से रोकता हो। अभी सांसद और विधायकों के दलबदल को रोकने वाला ही कानून देश में लागू है। इसके बाद भी देश में बढ़ी संख्या में विधायक दल बदल करते देखे जा सकते हैं।कई राज्यों में बहुमत वाली सरकारें दल बदल के कारण अल्पमत में आईं है, बाद में उस दल की सरकार बनी जिसे जनता ने सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया था। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में भी विधायकों के इस्तीफे दिए जाने के कारण सरकारें अल्पमत में आईं है।मौजूदा दल बदल कानून विधायकों को इस्तीफा देने से नहीं रोकता है।
सैद्धांतिक तौर पर भी देखा जाए तो सांसद अथवा विधायक के तौर पर निर्वाचित व्यक्ति यदि इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होता है तो वह गलत नहीं माना जा सकता। विधायकों और सांसदों के दल बदल में अब यही चलन देखने को मिल रहा है। जबकि निकायों के प्रतिनिधि दल को छोड़े बगैर ही क्रॉस वोटिंग के जरिए अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहे हैं।जिसे लोकतांत्रिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जा सकता।जिसके परिणाम आने वाले समय मे घातक हो सकते है।(लेखक राजनीतिक विश्लेषक वरिष्ठ पत्रकार है)
-डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

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