Saturday, November 23, 2024

प्रधानमंत्री नेहरू के प्रशंसक थे अटल जी

आज तक यह विवाद मिटा नहीं कि भारत में विपक्ष के कई नेता कांग्रेस पार्टी से नूरा कुश्ती लड़ते रहते थे। खास कर कम्युनिस्ट। मगर डॉ राममनोहर लोहिया और उनके सोशलिस्ट ही अपवाद रहे। अटल बिहारी वाजपेयी के बारे मे तो निश्चित राय है कि वे नेहरु के अथक प्रशंसक रहे। यह तथ्य गत सप्ताह फिर उजागर हुआ। वाजपेयीजी पर शोध पर आधारित एक पुस्तक (प्रकाशक : मैकमिलन, लंदन) बाजार में हाल ही आई है। इसमें वयोवृद्ध स्वाधीनता सेनानी और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य जेबी कृपलानी की अटलजी पर राय छपी है। आचार्य जी ने कहा था: ‘यह अटल जनसंघ की खाल में नेहरूवादी हैं।’ लेखक बांग्ला पत्रकार अभिषेक चौधरी ने कृपलानीजी द्वारा स्वतंत्र पार्टी के सांसद मीनू मसानी से कथन का (7 नवंबर 1962) उद्धहरण दिया है।

तब कृपलानीजी ने सचेत किया था कि: ‘उस व्यक्ति पर विश्वास मत करना। वह हमारा नहीं, नेहरू का आदमी है।’ कारण था कि चीन द्वारा भारत की पराजय (1962) पर समस्त गैर-कम्युनिस्ट विपक्ष ने प्रधानमंत्री नेहरू का त्यागपत्र मांगा था। ‘मगर अटलजी ने इसका विरोध किया था।’ इस पुस्तक के अध्याय ‘नेहरू वर्ष’ में अटलजी द्वारा नेहरू पर दिये गए कसीदों का जिक्र है। नेहरू ने युवा सांसद वाजपेयी को 1960 में संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए भारतीय प्रतिनिधि मंडल का सदस्य नामित किया था। यह अटलजी की प्रथम विदेश यात्रा थी। वे तब 36 वर्ष के थे। अविवाहित थे।

विदेश सचिव एमके रसगोत्रा ने उन्हें कला संग्रहालय, म्यूजियम तथा नाइट क्लब दिखाया था। सुरापान भी किया गया था। अटल जी पर कई पुस्तकें छपी हैं। पर ताजा (मैकमिलन) किताब में यही दर्शाया गया कि अटलजी नेहरु-कांग्रेस के करीबी थे। चेन्नई के ‘दैनिक हिंदू’ को सरदार मनमोहन सिंह ने भी कुछ बताया था कि ‘अटलजी कई मायनों में नेहरूजी से मिलते जुलते थे।’ अटलजी ने संसद में 29 मई 1961 के भाषण में कहा था: ‘महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के संबंध में कहा है कि वे असंभवों के समन्वय थे।

जवाहरलाल नेहरू के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है।’ जब दिसंबर 1963 में पंजाब की कांग्रेस सरकार के गृहमंत्री मोहनलाल ने आरोप लगाया कि ‘कुछ विरोधी दल विदेशी शक्तियों के सहयोग से नेहरू सरकार को अपदस्थ करने का प्रयास कर रहे हैं’ तो अटलजी ने कहा कि ‘यदि गृहमंत्री इस आरोप का खंडन या पुष्टि नहीं करते तो मैं आमरण अनशन करूंगा।’ उन्होंने कहा : कि ‘मैं ऐसे किसी दल का सदस्य होना पसंद नहीं करूंगा जो किसी विदेशी शक्ति के सहारे वर्तमान सरकार को अपदस्थ करने का प्रयास कर रही है। इस आरोप को स्वीकार करने के बजाय मैं मृत्यु को अधिक पसंद करूंगा।’

मशहूर स्तंभकार (इंडियन एक्सप्रेस) श्रीमती कूमी (वीरेंद्र) कपूर ने (8 जनवरी 2020) को वाजपेयी जी पर प्रकाशित पुस्तक के ‘जुगलबंदी’ के लेखक विनय सीतापति का जिक्र किया था श्रीमती राजकुमारी कौल का। वे अटलजी के आवास पर स्थाई रूप से रहती थीं। तब संघ के नेताओं ने सुझाया था कि प्रधानमंत्री उस महिला से पाणिग्रहण कर लें अथवा अलग हो जाएं। यह मसला 1965 में गुरु गोलवालकरजी के समक्ष भी उठा था। तब पार्टी कोषाध्यक्ष नानाजी देशमुख दोनों ने विवाह को सुझाया था।

अयोध्या के बारे में अटल जी कभी भी संघर्ष के पक्षधर नहीं रहे। आंदोलन के प्रारंभ (6 दिसंबर 1992) से ही। जब उनके आत्मीय डॉ एनएम घटाटे उनसे मिले थे तो अटलजी ने गहरी नाराजगी इन शब्दों में प्रकट की : ‘अयोध्या में युद्ध नहीं होता है। मगर वहां महाभारत हो गया।’ उसके बाद देर शाम जब डा. घटाटे उनसे मिलने गए तो उनका पहला सवाल था : ‘वहां क्या हुआ?’ वे मीडिया से बात करने से पहले जानना चाहते थे कि वास्तव में वहां जो हुआ, वह कैसे हुआ और कौन थे सूत्रधार? अगले दिन संसद में अटलजी ने 6 दिसंबर को इतिहास में ‘काला दिवस’ करार दिया।

भारतीय जनता पार्टी का निर्णय था कि यदि विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार में सोमनाथ-अयोध्या रथयात्रा लालकृष्ण आडवाणी गिरफ्तार किया तो भाजपा केंद्रीय सरकार का समर्थन वापस ले लेंगे। अटलजी को पार्टी का निर्देश था कि नेता सदन के नाते वे तत्काल राष्ट्रपति को इस उद्देश्य का पत्र सौंप देंगे। उस दिन दिसंबर में अटलजी कोलकाता हवाई अड्डे से गुवाहाटी जा रहे थे। तभी पश्चिम बंगाल के भाजपायी सूत्रों ने सूचित किया तो अटल जी ने कहा कि गुवाहाटी से लौटकर वे राष्ट्रपति से भेंट करेंगे। पर पार्टी जन का आग्रह था। अत: वे दिल्ली गये।

नेहरू ही नहीं अटलजी कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के भी काफी आत्मीय रहे। अटलजी के निजी सहायक रहे शक्ति सिन्हा ने ‘बाजपेयी : दि इयर्स दैट चेंजड इंडिया’ नामक किताब में लिखा कि ‘अटलजी ने 1996 में लोकसभा चुनाव अभियान से रूसी वायुयान सुखाई योजना को मुद्दा नहीं बनाया था। पिता नेहरू ही नहीं पुत्री इंदिरा गांधी के भी अटलजी हमदर्द थे। वे 1977 में जनता पार्टी सरकार बसने के तुरंत बाद वे विदेश मंत्री के नाते इंदिराजी से मिलकर आश्वासन देकर आए थे कि आपातकाल के दौरान उनकी कुकृत्य पर जनता पार्टी द्वारा कोई भी कार्यवाही नहीं की जाएगी। (पत्रकार एनपी की पुस्तक ‘दि अनटोल्ड बाजपेई’, मंजुल पब्लिशिंग: नवभारत टाइम्स 25 दिसंबर 2020)।

यदि अटल जी का बस चलता तो नरेंद्र दामोदरदास मोदी 2002 में ही राजनीति से हटा दिए जाते। वे सत्ता से बेदखल हो जाते। तब मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। वहां दंगे हुये थे। सोनिया ने मोदीजी को ‘मौत का सौदागर’ बताया था। अटलजी ने मोदीजी को राजधर्म की अवहेलना का दोषी माना था।

गुप्तचर संस्था ‘रा’ के प्रमुख अमरजीत सिंह दुलाल ने अपनी पुस्तक कश्मीरी : दि वाजपेयी इयर्स’ में (जुलाई 2015) मोदीजी के बारे में प्रधानमंत्री के कथन का जिक्र किया था कि : ‘गुजरात में हमसे गलती हो गई।’ यदि भाजपा की गोवा बैठक में आडवाणी मदद न करते तो अटलजी ने मोदी का त्यागपत्र ले लिया होता वरना बर्खास्त कर देते।
(लेखक-के. विक्रम राव)

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