समूची दुनिया में अधिकतर बच्चे और बड़े अपने स्वाद के वशीभूत होकर अपना स्वास्थ्य बिगाड़ रहे हैं। यह एक जानी हुई बात है कि स्वस्थ तन में स्वस्थ मन रहता है। अगर हमारा तन स्वस्थ है, तो हम प्रत्येक कार्य को कुशलतापूर्वक करके जीवन को सफल बना सकते हैं, लेकिन आमतौर पर होता यह है कि हम स्वाद के मायाजाल में फंस कर जीवन को संकट में डाल देते हैं।
अनेक बच्चे और बड़ों को देखा जा सकता है कि वे जीभ के स्वाद में प्रकृति के प्रतिकूल चलकर गंभीर बीमारियों का शिकार होकर अस्पताल और डाक्टरों के पास चक्कर लगा कर अपना धन और समय बर्बाद करते रहते हैं। उन्हें देख कर मुझे सहानुभूति होती है कि आखिर वे इस तरह न केवल अपना, बल्कि समूचे मानव जीवन को नरक बनाने के ‘अभियान’ में लगे हैं।
एक तरफ जीभ का स्वाद और दूसरी ओर भोजन को भी खाते हुए चबा कर नहीं खाना और न ही भोजन को नियम और प्रकृति के अनुकूल खाया जाता है। इसके अलावा अपनी दिनचर्या को भी प्रकृति के प्रतिकूल बनाकर कई लोग जीवन में दुख और संकटों से घिरे रहते हैं। आयुर्वेद कहता है कि जो मनुष्य प्रकृति के अनुकूल होकर अपने जीवन को ढाल लेते हैं, वे हमेशा स्वस्थ और प्रसन्न रह कर सकारात्मक ऊर्जा से भरे रहते हैं।
साथ ही अपने जीवन में सफल होकर मानव जीवन को सार्थक कर लेते हैं, जिसके लिए प्रकृति ने उन्हें निर्मित किया होता है। साथ ही यह भी कहा गया है कि हमें भोजन को ईश्वर का प्रसाद मान कर ग्रहण करना चाहिए यानी भोजन को पहले ईश्वर का धन्यवाद करके ही ग्रहण करना चाहिए। यह याद रखना चाहिए कि अनेक लोग आज भी इस धरा पर भूखे रह जाते हैं।
अपने आसपास अगर नजर घुमाई जाए तो ज्यादातर लोग खाने को किसी जल्दबाजी के काम की तरह निपटाते हैं। जबकि सेहत और स्वाद के लिए जरूरी है कि भोजन को चबाकर खाया जाए। पुरानी पीढिय़ों को इस वैज्ञानिक तथ्य की जानकारी थी कि भोजन के बाद या बीच में ठंडा पानी पीना वर्जित है और अगर पीना ही पड़े तो गुनगुना जल पीना चाहिए। इसकी वजह यह है कि ठंडा पानी आमाशय की अग्नि को बुझा देता है।
भोजन के पाचन में अवरोध उत्पन्न होता है, जिससे भोजन बहुत समय तक आमाशय में पड़ा रहता है। आज जिन लोगों के पेट आगे की ओर निकल आते हैं और वजन बढ़ जाता है, तो यह एक तरह से अनेक रोगों को निमंत्रण देना है। प्रकृति के मुताबिक देखें-जानें तो हमें मौसम की हर सब्जी और फल आदि खाना चाहिए।
इसके लिए हमारी क्रयशक्ति जो और जितनी भी इजाजत दे, लेकिन खाना चाहिए। प्रकृति ने सब्जियों और फलों में शरीर को मजबूत बनाने और रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ाने के लिए पोषक तत्वों को सम्मिलित किया है। लेकिन आमतौर पर होता यह है कि हम स्वाद के वशीभूत होकर मौसम की सभी सब्जियां, फल और दालें आदि नहीं खाते हैं और न अपने बच्चों को खिलाने के लिए प्रेरित करते हैं।
हम बच्चों को दोष नहीं दे सकते। बच्चे तो वैसा ही भोजन खाते हैं, जैसा कि उनके पालक या संरक्षक उन्हें खिलाना चाहते हैं और उनके अभ्यास में डालते हैं। आज बच्चे तुरंत भोजन के आदी हो गए हैं। साथ ही समय-असमय खाने के भी। वे चबाकर नहीं खाते हैं, खाते समय मोबाइल और टीवी देखते रहते हैं, जिससे वे बचपन में ही बहुत सारी बीमारियों से घिर जाते हैं।
ऐसे में उनके संरक्षक धन और समय बर्बाद करते हैं। शिक्षा और पढ़ाई पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। एक जरूरी पहलू यह है कि स्वस्थ रहने के लिए रात में दांत और जीभ को साफ करके सोना चाहिए। ऐसा करने से हम बहुत सारे रोगों से यों ही बचे रह सकते हैं।
रात को जल्दी सोने की आदत और सुबह में जगकर सबसे पहले गुनगुना पानी दो-चार गिलास पीने से हमारे आमाशय, छोटी आंत, गुर्दे और बड़ी आंत की सफाई अच्छे से हो जाती है। इससे हमेशा हमारा तन और मन स्वस्थ रहता है। फिर हम स्वस्थ रहने के लिए योग, सैर या पढ़ाई आदि कर सकते हैं। अपनी रुचि के मुताबिक कुछ और सक्रियता बना सकते हैं।
स्वादिष्ट और ताजा चीजें अवश्य खाना चाहिए, लेकिन जीभ के स्वाद के वशीभूत होकर बीमारियों को आमंत्रित करना बुद्धिमानी नहीं है। मनुष्य का जीवन अमूल्य है। इसे स्वस्थ रखने के लिए स्वाद के मायाजाल में फंसने से बचना चाहिए। खासतौर पर बच्चों को इससे बचाया जाना चाहिए। भोजन के समय मोबाइल और टीवी से दूर रहने से पाचन शक्ति के हारमोन मोबाइल और टीवी के असर से शरीर में उपजी प्रतिक्रिया में स्थानांतरित हो जाते हैं।
शरीर अस्वस्थ हो जाता है। शरीर ही सारे कर्तव्यों को पूरा करने का एकमात्र साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना बेहद आवश्यक है, क्योंकि सारे कर्तव्य और कार्यों की सिद्धि इसी शरीर के माध्यम से होनी है। इसलिए इस अनमोल शरीर की रक्षा करना और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। ‘पहला सुख निरोगी काया’- यह स्वस्थ रहने का मूल-मंत्र है।
– विजय गर्ग