गत दिवस अखिल भारतीय साहित्य परिषद के अधिवेशन में भाग लेने के लिए ओडिया की राजधानी भुवनेश्वर जाने का अवसर मिला। पूर्व की काशी कहे जाने वाला महत्वपूर्ण आर्थिक नगर भुवनेश्वर महानदी से दक्षिण-पश्चिम में है। एक ओर सर्वसुविधा संपन्न आधुनिक महानगर तो दूसरी ओर ऐतिहासिक-पौराणिक महत्व के मंदिरों के लिए प्रसिद्ध भुवनेश्वर का एक अपना आकर्षण हैं। मंदिरों के शहर भुवनेश्वर के नामकरण के विषय में कहा जाता है कि यह नाम संस्कृत शब्द त्रिभुवनेश्वर से लिया गया है जिसका अभिप्राय तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव से है। यहां तथा आसपास अनेक शिव मंदिर होना प्रमाण है कि यहां शिव श्रद्धालु बहुतायात में हैं।
सम्राट अशोक भारतीय इतिहास के नायक है तो उन्हें बहुचर्चित बनाने वाला इतिहास प्रसिद्ध कलिंग युद्ध भुवनेश्वर में ही हुआ था। बौद्ध-जैन काल की स्मृतियों से जुड़ी बहुसांस्कृतिक नगरी भुवनेश्वर में सातवीं शताब्दी में प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों का निर्माण हुआ था उनमें से कुछ आज भी मौजूद है। अनुश्रुतियों के अनुसार 700 वर्ष पूर्व यहां 7000 से अधिक मंदिर थे, लेकिन समय के थपेड़ों ने उनकी संख्या को लगातार सीमित किया। आज भी यहां 600 मंदिर हैं तो यहां से लगभग 100 किलोमीटर दूर रत्नागिरि, उदयगिरि तथा ललितगिरि तीन बौद्ध विहारों के खंडहर है।
इसी प्रकार 6 किलोमीटर दूर उदयगिरि तथा खण्डगिरि की गुफ़ाओं में जैन राजा खारवेल की बनवाई कलाकृतियाँ अच्छी हालत में मौजूद है। भुवनेश्वर के जयदेव मार्ग स्थित राज्य संग्रहालय में सुरक्षित हस्तलिखित ताड़पत्रों पर चित्रित सांस्कृतिक विरासत की एक झलक प्राप्त की जा सकती है।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से चलने वाली तेजस एक्सप्रेेस से सायं 5 बजे चलकर अगली शाम भुवनेश्वर पहुंचे। त्रिदिवसीय कार्यक्रम महावीर भवन में था तो हमारे निवास की व्यवस्था निकट के होटल में की गई थी। भोजन की व्यवस्था कार्यक्रम स्थल थी जहां देशभर से आये साहित्यकारों को स्वादिष्ट ओडिया व्यंजन परोसे जाते थे जो बंगला के निकट प्रतीत हुए। चावल यहां का मुख्य भोजन है लेकिन रोटी की भी व्यवस्था थी।
नाश्ते मे चैला बाड़ा, चकुली पीठा जैसे चावल के विभिन्न प्रकार के व्यंजन और मिष्ठान मिलते थे। भुनी मूंग दाल में मसाले और सब्जिय़ाँ कद्दू, केला, रतालू, पपीता आदि मिलाकर बनी दलमा हो या चावल को पानी और खट्टी दही में भिगोकर बना पखला भाटा जिसमें सूखे मेवे भी दिखाई दे रहे थे। तड़का, डालमा, पीठा, आलू भरता, बढ़ी चूरा, पोई-साग, दैनापोड़ा, रसबाली, संतुला, चतुराय, कदली मांजा, खाजा, गज्जा, रसोगुल्ला, खीरा मोहना और न जाने क्या-क्या। स्थानीय कार्यकर्ता स्नेहपूर्वक आग्रह से भोजन परोसते थे।
एक शाम पुरी स्थित विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर का महाभोज बहुमंजिला भवन की विशाल छत्त पर चंदमा के शीतल प्रकाश में केले के पत्तों पर परोसा गया। अनेक प्रकार की सब्जियां, दाल, चटनी संग चावल तथा चावल के इतने व्यंजन जीवन में प्रथम बार देखने-चखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। विशेष यह कि कार्यक्रम की समाप्ति पर सभी को पत्तों से बने विशेष डिब्बों में भगवान जगन्नाथ का प्रसाद भेंट किया गया।
त्रिदिवसीय कार्यक्रम के विभिन्न सत्रों में साहित्य के विभिन्न पक्षों पर गंभीर चर्चा, रात्रि में बहुभाषी कवि सम्मेलन तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अपना बाकर्षण था अत: इसकी अति व्यस्त रूपरेखा के कारण कार्यक्रम के बाद भुवनेश्वर के कुछ महत्वपूर्ण स्थलों को ही देख सके। एक शाम हम लिंगराज मंदिर के दर्शन के लिए गए। लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर का सबसे महत्वपूर्ण, प्राचीन और विशाल परिसर है जिसका निर्माण 11वीं शताब्दी में सोमवंशी वंश के राजा ययाति नें करवाया था। 185 फीट ऊंचा नागर शैली का मंदिर है।
इसमें स्थापित मूर्तियां दिव्य और भव्य हैं। यहां के भोग मंडप की बाहरी दीवार पर बुंदेलखण्ड के विश्व प्रसिद्ध खजुराहो जैसी कामुकता उकेरी गई हैं। उत्तरी दिशा में स्थित पार्वती मंदिर की नक्काशी देखने योग्य है। लिंगराज मंदिर के आसपास भी अनेक छोटे-छोटे मंदिर हैं जिनमें 8वीं शताब्दी में स्थापित वैताल मंदिर में स्थापित चामुंडा देवी की मूर्ति भयावह प्रतीत होती है। यहां तांत्रिक, बौद्ध तथा वैदिक परम्परा के लक्षण एक साथ देखने को मिलते हैं।
11वीं शताब्दी के राजा-रानी मन्दिर में स्थापित शिव और पार्वती की भव्य मूर्ति जिस विशेष पत्थर से बनी है उसे राजारानी पत्थर कहा जाता है इसी कारण इसका नामकरण राजा-रानी मंदिर हुआ। इस मंदिर के दीवारों पर बनी कलाकृतियाँ देखने योग्य हैं। राजा-रानी मन्दिर के निकट ही ब्राह्मेश्वर मन्दिर है। अद्भुत नक्काशी वाले इस मंदिर की स्थापना 1060 ई. में हुई थी। इस मन्दिर के चारों कोनों पर चार छोटे-छोटे मन्दिर स्थित हैं।
राजा-रानी मन्दिर से मात्र कुछ मीटर की दूरी पर 650 ई.में स्थापित मुक्तेश्वर मन्दिर समूह है। यहां परमेश्वर मंदिर तथा मुक्तेश्वर मंदिर मुख्य हैं। परमेश्वर मंदिर बड़ा और अच्छी अवस्था में है जहां आकर्षक चित्रकारी भी देखने को मिलती है। इस मंदिर के गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग लिंगराज मंदिर से भी अधिक चमकदार है। मुक्तेश्वर मंदिर आपेक्षाकृत छोटा है। यहां की गई उकेरे गए चित्रों में से एक कृशकाय साधुओं तथा दौड़ते बंदरों के समूह को दर्शाता है तो एक अन्य चित्र विश्व साहित्य को भारत की महान देन पंचतंत्र की कहानी को दर्शाया गया है। इस मंदिर के दरवाजे आर्क शैली में बने हुए हैं। मगरमच्छ के सिर जैसे तोरण वाले इस मंदिर के दायीं ओर छोटे से कुए को मारीची कुंड कहा जाता है।
भुवनेश्वर से 15 किलोमीटर दूर हीरापुर के गोलाकार आकृति वाले चैसठ योगिनी मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्दी में हुआ था। 60 मूर्तियां दीवारों के आलों मे तो शेष 4 मूर्तियां मंदिर के मध्य के एक चबूतरे पर स्थापित है। इसकी बाहरी दीवारों के आलों में महिला रक्षकों की मूर्तियां स्थापित है।
भुवनेश्वर के दक्षिण में स्थित धौली ऐतिहासिक महत्व का स्थान है जहां सम्राट अशोक का कलिंग युद्ध के पश्चात हृदय परिवर्तन हुआ और उसने बौद्ध मत धारण कर जीवन भर अहिंसा का व्रत लिया। यहां स्थापित एक पाषाण स्तंभ पर अशोक का जीवन दर्शन उकेरा गया है। धौली पहाड़ी के चोटी पर बने शान्ति स्तूप में तथागत बुद्ध के जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं को चित्रित करती मूर्तियाँ स्थापित हंै। यहां की ऊंचाई से दया नदी का पूरा दृश्य देखा जा सकता है।
चेदी राजा खारवेल द्वारा जैन मुनियों के लिए भुवनेश्वर से 6 किमी दूर उदयगिरि और खन्डगिरि की पहाडियों में पत्थरों को काट कर गुफाएं बनाई। उदयगिरि में रानी गुफा के नाम से चर्चित गुफा दो तल की है। इस आकर्षक गुफा की कुछ कलाकृतियां अभी भी अच्छी अवस्था में हैं। प्रथम दृष्टया ही कहा जा सकता है कि इसे बनाने वाले शिल्पी-कलाकार असाधारण प्रतिभा के धनी थे। इसी प्रकार गणेश की आकर्षक मूर्ति वाली गुफा के द्वार पर दो हाथी द्वारपाल के रूप से स्थापित किया गया है। जहां तक खन्डगिरि गुफा का प्रश्न है वे बहुत अच्छी अवस्था में नहीं कही जा सकती। यहां जैन तीर्थंकरों के लगभग सभी विग्रह खण्डित है।
किसी महानगर सी चमक-दमक, चौड़ी सड़के, फ्लाईओवरों की श्रृंखला, अनेक विश्वविद्यालय, विज्ञान संस्थान, विमान-पत्तन, परिवहन की अच्छी सुविधाओं से सुसज्जित भुवनेश्वर अपने भाषा प्रेम के लिए भी जाना जाता है। अधिकांश बोर्ड, होर्डिेंग, यातायात संकेत ओडिया भाषा में देखने को मिले। लेकिन मंदिरों की व्यवस्था बहुत संतोषजनक नहीं कही जा सकती। कुल मिलाकर देश की विभिन्न भागों से आने वाले पर्यटकों के लिए तीनों लोकों के स्वामी भगवान शिव के प्रति श्रद्धा रखने वाले इस नगरी में बहुत कुछ है। वे अपने साथ यहां के हस्तशिल्प हाट से पथौरी (पत्थर से बना कप) तथा अनेक आकर्षक और उपयोगी वस्तुएं, साडिय़ा आदि ले जा सकते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व पूरी में आयोजित एक सप्ताह के प्रवास के दौरान समुद्र तट पर स्थित विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर और कोर्णाक सूर्य मंदिर के दर्शन कर चुका था। इस बार भी जाने का मन तो था, लेकिन समय अभाव के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका।
-डा. विनोद बब्बर