आज का भारत प्राचीन काल के भारत से बहुत कुछ मायनों में अलग है तो बहुत कुछ अर्थों में जैसा था, वैसा ही है। यदि प्राचीन प्रगतिपथ से हटकर देखें तो आज का भारत विज्ञान, वाणिज्य, तकनीकी एवं भौतिकता तथा उपभोक्तावाद तथा मैटेरियलिज्म यानी स्थूल चीजों के प्रति आसक्ति के संदर्भ में प्राचीन भारत से काफी अलग भारत है।
कभी खुद को विश्व गुरु घोषित करने वाले देश ने कम से कम 20 वीं और 21वीं शताब्दी में पश्चिम, अमेरिका एवं यूरोपियन देशों से बहुत कुछ सीखा है भले ही यह कथन बुरा लगे परंतु यह एक सच है कि हमने कई मायनों में उनकी नकल की है, उनका अनुसरण किया है । ध्यान रहे यह वे ही देश हैं जिनके बारे में हमारी धारणा नकारात्मक रही है लेकिन काल एवं परिस्थितियों तथा उन देशों के द्वारा की गई उन्नति से प्रभावित होकर हमने उन जैसा ही जीवन एवं आचरण अपनाने की कोशिश की है।
इसी का दूसरा पक्ष है कि अभी भी भारत कई मायनों में प्राचीन लीक पर ही चलता नजर आता है । इस संदर्भ में एक नहीं अनेक बिंदुओं पर दृष्टि डाली जा सकती है । खासतौर पर धर्म के मामले में हमारी आस्था एवं धार्मिक गुरुओं तथा नियमों का अंधानुकरण आज भी जारी है । कभी पूर्व तो कभी पश्चिम के बीच हिचकोले लेता हुआ यह देश कभी वैज्ञानिकों का देश लगता है तो फिर कई कांड ऐसी छवि प्रकट करते हैं कि हम अभी भी वहीं है जहां प्राचीन काल में थे बल्कि कहा जाए कि प्राचीन काल में धर्म का अनुसरण बहुत कुछ मानवीय दृष्टिकोण, दया, करुणा ममता, सहानुभूति, सहयोग एवं सर्वस्व अर्पण की भावना के साथ किया जाता था ।
पूजा एक नितांत व्यक्तिगत मामला था. सबको व्यावहारिक रूप से यह अधिकार प्राप्त था कि वह जिस धर्म को चाहे अपनाए । आज भी संवैधानिक दृष्टि से यह अधिकार प्राप्त है लेकिन पिछले 10-15 वर्षों में जिस प्रकार की कट्टरता यहां के मुख्य धर्मों के अनुयायियों के बीच देखने को मिली है, वह बहुत ही चिंतित करने वाला विषय है।
कभी चाणक्य ने कहा था कि धर्म और राजनीति को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि यदि राजनीति से धर्म हट जाएगा तो फिर राजनीति पथ भ्रष्ट हो जाएगी एवं जीवन से नैतिक मूल्यों का विलोपन हो जाएगा । तात्कालिक परिस्थितियों एवं सामाजिक ताने-बाने के हिसाब से चाणक्य का कथन एकदम सच था लेकिन धीरे-धीरे राजनीति एवं धर्म दोनों ने ही स्वरूप बदला है और आज दोनों ही अपने मूल रूप से बहुत अलग हो चुके हैं । भले ही इन दोनों के पक्षधर अपने-अपने तरीके के तर्क दें और परिवर्तन को ही प्रकृति का नियम बताते हुए इस बात को अपना समर्थन दें लेकिन दुर्भाग्य यह है कि यह परिवर्तन सकारात्मक कम एवं नकारात्मक बहुत ज्यादा हुआ है।
दुनिया का जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा लोकतंत्र कहे जाने वाला भारत आज जिस प्रकार का राजनीतिक परिदृश्य प्रस्तुत कर रहा है, वह हतप्रभ कर देने वाला है ।? लोक हित नारों में तो है लेकिन राजनीति में प्रवेश करने वाले लोग जनहित के लिए कम एवं अपनी स्वार्थ पूर्ति या समाज में सम्मानजनक स्थान पाने, अपनी जाति, बिरादरी या धर्म में महत्व पाने, अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को पूरी करने और आर्थिक रूप से लाभ कमाने के लिए राजनीति में अधिक आ रहे हैं। विचारधारा एवं सिद्धांतों की बात भी आमतौर पर एक मुखौटा मात्र बनकर रह गई है।
हवा का रुख देखकर दल एवं दिल बदलने वाले राजनीतिज्ञों की संख्या निरंतर बढ़ोतरी पर ही है. ऐसा नहीं कि आम आदमी इन चीजों से परिचित न हो लेकिन कभी मजबूरी कभी क्षेत्रवाद, कभी जातिवाद, कभी धर्म तो कभी संप्रदायवाद के हथियारों से उसे इस कदर दिग्भ्रमित कर दिया जाता है कि वह ऐसे दलों एवं लोगों को अपना समर्थन दे देता है जो राजनीति के सफेद आवरण के पीछे छुपे हुए प्रतिक्रियावादी, माफिया सांप्रदायिकता फैलाने वाले, धार्मिक भावनाओं का दोहन कर अपना हित साधने वाले या फिर अपनी दौलत से आम आदमी को प्रभावित कर वोट हासिल कर लेते हैं।
अब साधारण सी बात है कि सासद एवं विधानमंडलों में या स्थानीय निकायों की प्रशासनिक इकाइयों में जैसे लोग जाएंगे, वहां से निर्णय भी वैसे ही आएंगे और इन निर्णयों का प्रभाव अंतत: इस आम आदमी पर पड़ता है जिसे बहला फुसला कर या डरा धमकाकर अथवा बरगलाकर उनके वोट ले लिए जाते हैं यद्यपि इस वर्ग में भी कुछ बुद्धिमान एवं साहसी लोग हैं जो हिम्मत करके आगे आते हैं और इन नकारात्मक प्रवृत्तियों का विरोध भी करते हैं और उनके खिलाफ वोट भी देते हैं लेकिन ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत ही कम है और लालच डर या स्वार्थपरता के कारण वोट देने वाले लोगों का निर्णय ही निर्णायक बन जाता है।
पिछले एक डेढ़ दशक से राजनीति में एक नई धारा उभर कर आई है जिसे ‘राष्ट्रवाद जैसा लुभावना नाम दिया गया है यदि गौर करें तो यह वही धारा है जो 1992 में अयोध्या में फट पड़ी थी या फिर गोधरा और उससे पहले अलीगढ़ तथा मेरठ जैसे शहरों में और दिल्ली एवं पूरे देश में किसी धर्म विशेष को निशाना बनाकर अनेक मानव जीवन लील गई थी। बेशक यह धारा समय-समय पर दल एवं विचारधारा बदलती रही है। यहां धर्म, दल एवं पीडि़त अथवा पीडि़त करने वाले लोगों और दलों या समूहों के नाम देना उचित नहीं है मगर यह भी नहीं कह सकते कि यह तथाकथित राष्ट्रवाद केवल 2014 के बाद ही अस्तित्व में आया हो यह 1946 में भी था 1984 में भी था 1992 में भी था और उसके बाद भी समय-समय पर अलग-अलग रंग रूप धरकर अपना तांडव मचाता आया है।
कभी एक धर्म, संप्रदाय, जाति या क्षेत्र को निशाने पर रखकर एक दल या विचारधारा अपना हित साधते हैं तो कभी यही काम दूसरी विचारधारा या दल अपने तरीके से पूरा करता है यानी जब हम देश धर्म और देश और धर्म की बात करते हैं तो बहुत कुछ खुलकर सामने आता है।
बेशक, आज भी भारत का बहुत बड़ा वर्ग धर्मसहिष्णु है और इस सहिष्णु वर्ग की उदारता का लाभ उठाकर किसी कट्टरवर्ग को संतुष्ट करते हुए लंबे समय तक सत्ता का सुख कुछ खास दलों एवं लोगों ने भोगा है लेकिन पिछले एक डेढ़ दशक से वह सहिष्णु वर्ग भी कट्टर बना दिया गया है उसके पीछे अनेक तर्क भी गढ़ लिए गए हैं जैसे हमेशा हम ही क्यों पिसें का भाव गहराई तक चला गया है लेकिन यह समझने वाले लोग सामने नहीं आ रहे हैं कि यदि चारों तरफ से अपने-अपने मुद्दों धर्म धर्म क्षेत्र या भाषा के नाम पर कट्टरता बढ़ती जाएगी तो इसका परिणाम क्या होगा।
हो सकता है एक वर्ग विशेष का आधिपत्य स्थापित हो जाए हो सकता है एक वर्ग पूरी तरह समाप्त या दबाकर रहने वाला बन जाए लेकिन कट्टरता व नफरत के इस टकराव में धर्म भले ही बने रहें लेकिन देश धर्म सबसे ज्यादा आहत होगा और यदि यह देश धर्म आहत होता है तो फिर सबसे बड़ा नुकसान भी देश का ही होगा।
बेहतर हो कि जिस प्रगति के पथ पर हम पसीना बहा कर शिखर की और बढ़ रहे हैं, इसी पर धैर्य लग्न एवं सहनशीलता के साथ तथाकथित धर्म को एक तरफ करके बढ़ते रहें। कहीं ऐसा ना हो कि इस सारी प्रगति को देश और धर्म के नाम पर फायदा उठाने वाले लोग इस तरह हावी हो जाएं कि अखंड भारत का सपना देखने वाला हिंदुस्तान बिखराव रास्ते पर कदम बढऩे लगे।
-डॉ घनश्याम बादल