वेद में ऋषियों ने कहा है, “मर्नुभव” अर्थात हे प्राणी, मनुष्य बनो। लेकिन मनुष्य हम किसे कह सकते हैं? जो दूसरों के दुखों में द्रवित हो जाए, जो पीड़ा का अनुभव कर सके, वही सच्चा मनुष्य कहलाने का अधिकारी है।
वेद के अनेक मंत्रों में पर-दुख कातरता को सर्वोच्च गुण बताया गया है। इस संसार में अनेक मनुष्य, नाना प्रकार के दुखों, कष्टों, अभावों और कुंठाओं से पीड़ित हैं। यहां तक कि जो सुखी दिखाई देते हैं, वे भी किसी न किसी दुख से पीड़ित हैं।
अधिकांश लोग अपने स्वार्थों में मग्न रहते हैं और इस कारण दूसरों की पीड़ा का अनुभव ही नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्ति, जिनका हृदय अपने बगल में दुखी व्यक्ति को देखकर भी द्रवित नहीं होता, मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं हैं।
संभाव्यता, संस्कृति, ज्ञान और विवेक से युक्त होने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य कितना संवेदनशील है, उसे दूसरों की कितनी चिंता है और वह दूसरों की पीड़ा से कितना द्रवित होता है। यदि आप दूसरों के दुख से भी द्रवित नहीं होते, तो आम और पत्थर में क्या अंतर रह जाता है?