बचपन में अपने बुजुर्गों से एक शिक्षाप्रद कथा सुनी जो इस प्रकार है। एक कृषक को साधु रूप में भगवान मिले। कृषक उन्हें आदरपूर्वक अपने घर ले आया और श्रद्धापूर्वक भोजन कराया। साधु ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर वरदान दिया कि इस बार तुम्हारे परिश्रम और प्रभु कृपा से सौ मन गेहूं होंगे, जिससे तुम्हारे सब अभाव दूर हो जायेंगे।
कृषक बहुत प्रसन्न हुआ, उसने साधु के चरण स्पर्श कर कुछ भेंट देकर उन्हें विदा किया। फसल तैयार होने पर कृषक ने सोचा कि सौ मन गेहूं तो मेरे खेतों में होंगे ही, क्यों न इधर-उधर से इकट्ठा कर और बढ़ा लू ताकि सभी आवश्यकताएं पूरी हो जायें। वह रात्रि में दूसरे कृषकों के कटे हुए गेहूं के गठरों को अपने गेहूं के ढेर में लाकर रख देता था। कई दिन तक यह क्रम चलता रहा। जब कृषक ने बैल चलाकर अपना गेहूं निकाला तो वह तोलने के बाद सौ मन ही हुआ।
अकस्मात साधु महाराज फिर प्रकट हुए। कृषक ने कहा कि आपने तो कहा था कि मेरे खेत में सौ मन गेहूं होंगे, आपकी वह बात सत्य सिद्ध नहीं हुई। साधु महाराज ने कहा कि गेहूं तो सौ मन ही हुए हैं फिर मेरी बात असत्य कैसे हुई। कृषक ने कहा कि गेहूं तो सौ मन ही हुआ है, किन्तु मैंने कई रात तक दूसरों के गेंहू ढोये। यदि मैं यह न करता तो मेरे गेहूं तो पचास मन भी न होते। साधु महाराज ने हंसकर कहा कि तुमने तो मेरा काम बढ़ा दिया।
तुम दूसरों के गेहूं चोरी करके अपने घर चले जाते थे और मैं उन गेहुंओं को उठाकर पुन: उनके खेतों में रखकर आता था। तुम्हारे अपने तो गेहूं सौ मन ही होने थे और वही हुए। याद रखो भगवान गज और कैंची साथ रखता है, वह उतना ही नापकर, काटकर तुम्हें देता है, जितना तुम्हें देना है अर्थात तुम्हें उतना ही देगा, जितने की पात्रता तुम में है। तुम ईमानदारी और मेहनत से कमाओ या चोरी से कमाओ तुम्हें मिलना वही है, जितनी पात्रता तुम में है फिर क्यों नहीं अपनी ईमानदारी की कमाई पर संतोष नहीं करते हो।