नेत्र प्रकृति के द्वारा दिया गया एक ऐसा अनमोल उपहार हैं जिनके बिना सारी दुनिया ही अंधेरी हो जाती है। इसलिये इस अनमोल उपहार के प्रति जरा भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिये।
आजकल उम्र से पहले ही आंखों के कमजोर होने के अनेक कारण हैं। किशोर और नवयुवकों को तरह तरह के मानसिक तनाव से गुजरना पड़ता है, जिसके कारण मस्तिष्क और आंखों पर प्रभाव पड़ता है। मिलावटी खाद्य पदार्थ और दूषित जल के सेवन से भी आंखों में बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। असंतुलित आहार भी इसके लिये उत्तरदायी है। टी.वी. को नजदीक से और देर तक देखते रहना भी नेत्रों के लिये हानिकारक है।
वास्तव में हमारे नेत्रों की सुरक्षा का संबंध हमारे पेट और आहार से जुड़ा हुआ हैं। शरीर में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न होने का प्रमुख कारण पेट में बार बार कब्ज रहना है। यदि पेट साफ रहने और कब्ज न होने दिया जाये तो नेत्र दोष से भी बहुत हद तक बचा जा सकता है, इसलिये संतुलित तथा हल्का आहार ही लिया जाये तो शरीर को होने वाली व्याधियों से सुरक्षित रखा जा सकता है। अधिक नमक, मिर्च, मसाले, खटाई और तले हुए पदार्थों से जहां तक हो सके, अपने आप को बचाना चाहिये।’
नेत्र व्याधियों में विटामिनों की कमी का भी बहुत बड़ा हाथ है। उदाहरण के लिये विटामिन ‘ए ‘ की कमी से नेत्रों की ज्योति कम हो सकती है और आदमी रतौंधी का शिकार हो जाता है। विटामिन ‘बी ‘ की कमी से आंखों में भारीपन महसूस होने लगता है और आंखें थोड़े ही परिश्रम से थक जाती हैं। इनकी कमी के कारण नेत्रों के लैंस को भी हानि पहुंचती है। उसमें मोतियाबिंद तक हो जाता है।
नेत्रों और शरीर को स्वस्थ रखने के लिये हमें सलाद व हरी सब्जियां अधिक से अधिक मात्रा में प्रयोग करने चाहिये। विटामिन ‘डी ‘ सूर्य की किरणों से तथा दूध, दही व मक्खन इत्यादि से मिलता है। विटामिन ‘डी ‘ का असर भी आंखों पर खूब अच्छा पड़ता है। इससे ज्ञान तन्तुओं का पोषण भी होता है।
योग क्रियाओं में आसनों का अत्यधिक महत्व है। सर्वांगासन मूत्र विकारों को दूर करने और उनकी ज्योति बढ़ाने में एक सर्वोत्तम और हानिरहित आसन है। इसके अलावा योग मुद्रासन, सिंहासन, भुजंगासन आदि आसन भी नेत्रों के लिए हितकारी हैं।
हमारे शरीर की प्रत्येक क्रिया एक विशेष ऊर्जा के द्वारा सम्पन्न की जाती है जिसे ‘प्राण ऊर्जा ‘ कहते हैं। ‘प्राण ऊर्जा ‘ की जरा सी भी कमी अनेक व्याधियों को शरीर पर आक्रमण करने का अवसर प्रदान करती है, इसलिये शरीर में प्राण टट्टी ऊर्जा का प्रमुख स्रोत ‘प्राण मुद्रा ‘ है। सबसे छोटी (कनिष्ठिका) अंगुली तथा उसके पास वाली अनामिका अंगुली के शीर्षों (आगे के भागों) को अंगूठे के शीर्ष पर मिलाकर यह मुद्रा बनती है।
यह मुद्रा स्वस्थ और अस्वस्थ दोनों ही प्रकार के मनुष्यों द्वारा व्यवहार में लाई जा सकती है। इस मुद्रा को सम्पन्न करने के लिए कोई निश्चित सीमा भी नहीं है। कोई भी व्यक्ति इसे जितने समय तक चाहे कर सकता है। यह पूरी तरह निरापद है। इसे तीस मिनट से अधिक समय के लिये रोजाना करने वाले के नेत्र विकार दूर होते हैं और नेत्रों की ज्योति बढ़ती है।
नेत्र ज्योति के लिये ‘जलनेति ‘ का भारतीय योग शास्त्र में एक विशेष स्थान है। इससे जुकाम तथा नेत्रा रोगों में आशातीत सफलता मिलती है। इसकी प्रयोग विधि-एक टोटीदार बर्तन में थोड़ा सा सेंधा नमक मिलाकर गुनगुना जल भर लें। टोटी को नाक के छिद्र में लगा कर, सिर को थोड़ा दूसरी और झुकाकर बर्तन को ऊपर उठायें ताकि पानी नाक में आसानी से प्रवेश कर सके।
उस समय श्वास मुंह से लेना चाहिये। पानी एक नासिका से जाकर दूसरी नासिका से बाहर निकलेगा। इसी प्रकार दूसरी नासिका को ऊपर करके उसमें से पानी डालकर पहली नासिका से निकालें।
इतना ध्यान अवश्य रखें कि नाक से श्वास बिल्कुल न लें अन्यथा पानी मुंह में चला जायेगा। यह भी याद रहे कि ‘जल नेति ‘ क्रिया करने के पश्चात् धौंकनी की तरह तेज श्वास द्वारा नाक का सारा पानी बाहर अवश्य निकाल दें। यथा विधि जलनेति करने वाले का चश्मा लगाना छूट जाता है।
– परशुराम संबल