Wednesday, November 6, 2024

 सुख-दुख का खेल

सुख और दुख मनुष्य की दो भुजाओं की भाँति हैं जिनमें से एक आगे बढ़ती है, तो दूसरी पीछे रहती है। यानी कभी दुख आगे बढ़कर मनुष्य को सताता है, रुलाता है और डराता है। कभी सुख आगे आकर मनुष्य को आशा देता है और हँसाता है। इस तरह दुख और सुख का यह खेल अनवरत ही चलता रहता है। मनुष्य चाहकर भी सुख और दुख के इस चक्र से बाहर नहीं निकल सकता।

मनुष्य तराजू के दो पलड़ों पर सुख और दुख को रखकर तोलता रहता है। कभी उसके सुख का पलड़ा भारी हो जाता है, तो कभी उसके दुख का। मनुष्य सारा जीवन सुख के पलड़े को ही भारी होते हुए देखना चाहता है परन्तु उसके चाहने मात्रा से कुछ नहीं होता। एक बात तो निर्विवाद सत्य है कि दुख का अनुभव किए बिना, सुख का मूल्य मनुष्य को ज्ञात नहीं हो सकता।

कवि ने बताया है कि सुख की अनुभूति कब सुखद होती है-
सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते
यथान्धकारादिवदीपदर्शनम।
सुखात्तु यो याति दशांदरिद्रतां
धृतः शरीरेण मृतः स जीवति

अर्थात् वास्तव में दुखों का अनुभव करने के बाद ही सुख का अनुभव शोभा देता है। जैसे घने अँधेरे से निकलने के बाद दीपक का दर्शन अच्छा लगता है। सुख से रहने के बाद जो मनुष्य दरिद्र हो जाता है, वह शरीर के होते हुए भी मृतक की तरह जीवित रहता है।

कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि दुख को भोगने के बाद ही सुख का आनन्द मिलता है। अँधेरे का सामना किए बिना उसे प्रकाश की कीमत पता नहीं चलती। चाहे दीपक का ही प्रकाश हो, अँधेरे के उपरान्त वह भी सुखदायक प्रतीत होता है। कारण स्पष्ट है कि अँधकार किसी को रुचिकर नहीं लगता।

उसमें मनुष्य को कुछ भी नहीं दिखाई देता, उससे मनुष्य डरता है और वहाँ ठोकर भी खा जाता है। इसलिए उसे प्रकाश चाहिए होता है।
मनुष्य की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह सुखपूर्वक रहने के बाद दरिद्र हो जाए। दरिद्रता के पश्चात सुख-समृद्धि मिले तो मनुष्य सारी पुरानी कठिनाइयाँ भूल जाता है और उस ऐश्वर्य का भोग करके आनन्दित होता है परन्तु सुख के बाद आने वाली दरिद्रता को वह पचा नहीं पाता।

उस समय वह टूटकर बिखर जाता है और वह निराशा के अँधकूप में डूब जाता है। तब मनुष्य अपने जीवन से हार जाता है। ऐसी स्थिति में उस मनुष्य का जीवन मृतप्रायः हो जाता है।
पतझड़ ऋतु की उदासी के पश्चात आने वाली वसन्त ऋतु सबके हृदयों को आह्लादित करने वाली होती है। चारों ओर के निराशाजनक माहौल को फल-फूलों से लदे पेड़ बदल देते हैं। सर्वत्रा ही सुगन्ध का साम्राज्य हो जाता है। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु से होने वाले असह्य कष्टों से वर्षा ऋतु की रिमझिम बरसती फुहारें निजात दिलाती हैं। वे सम्पूर्ण प्रकृति में नवजीवन का संचार करती हैं।

सुख-दुख का यह खेल धूप-छाँव की तरह चलता रहता है। ये दोनों चक्र के कभी ऊपर चले जाते हैं तो कभी नीचे आ जाते हैं। यह खेल लगातार इसी प्रकार चलता रहता है। मनुष्य को कभी भी, किसी भी स्थिति में हार नहीं माननी चाहिए। इसका अर्थ है कि मनुष्य को दुख आने पर रोना-चिल्लाना नहीं चाहिए और सुख आने पर अहंकारी बनकर हवा में उड़ना नहीं चाहिए।

सुख और दुख दोनों ही मनुष्य की परीक्षा लेने के लिए आते हैं। इन स्थितियों में ही मनुष्य के धैर्य को परखा जाता है। जो इस निष्कर्ष पर खरा उतरता है, वह अग्नि में तपाए गए सोने की तरह कुन्दन बनकर सफल हो जाता है।
जो मनुष्य इस परीक्षा में असफल होता है, उसे दुबारा भट्टी में तपना पड़ता है। इसलिए मनुष्य को हर स्थिति में द्वन्द्वों को सहन करना पड़ता है और स्थितप्रज्ञ बनना पड़ता है।

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