Wednesday, June 26, 2024

14 फरवरी जयंती पर विशेष – स्वाधीनता का अलख जगाने वाले गुरु समर्थ रामदास

-अशोक “प्रवृद्ध”
हिन्दू पद पादशाही के संस्थापक छत्रपति शिवाजी के गुरु, दासबोध नामक ग्रन्थ के रचयिता, महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत समर्थ
स्वामी रामदास का जन्म महाराष्ट्र के जालना जिले के जांब नामक ग्राम मेंशक संवत 1530 तदनुसार ईस्वी सन 1608 में
रामनवमी के दिन मध्याह्न काल में जमदग्नी गोत्र के देशस्थ ऋग्वेदी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका मूल नाम
नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी (ठोसर) था। इनके पिता सूर्याजीपंत ठोसर ग्राम के कुलकर्णी राजस्व अधिकारी थे, माता का
नाम राणुबाई था। इनके कुल में इक्कीसपीढ़ी से सूर्योपासना परंपरा प्रचलित थी। इनके पिता सूर्याजीपंत सूर्यदेव के उपासक थे
और प्रतिदिन आदित्यह्रदयस्तोत्र का पाठ करते थे। उनका अधिकांश समय सूर्योपासना में ही व्यतीत होता था। उनकी माता
राणुबाई भी सूर्य नारायण की उपासिका थीं। सूर्यदेव की कृपा से सूर्याजीपंत को दो पुत्र गंगाधर स्वामी (श्रेष्ठ) और नारायण
हुए।
ऐसी मान्यता है कि बचपन में ही नारायण को साक्षात प्रभु श्रीराम के दर्शन हुए थे। इसलिए वे रामदास कहलाते थे। बालक
नारायण बचपन में बहुत शरारती थे। नारायण को नित्य ही शरारत करते देख एक दिन माता राणुबाई ने नारायण से कहा
कि तुम दिनभर शरारत किया करते हो, कुछ काम किया करो।

तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं?यह बात नारायण के मन को चुभ गई। और दो-तीन दिन बाद वे अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यानमग्न
बैठ गए। दिन भर नारायण की खोज- बीन होती रही, परन्तु वे कहीं नहीं दिखे। बहुत खोजने पर शाम के समय कमरे में
उन्हें ध्यानस्थ देखा गया। माँ ने नारायण को एकांत में सचिंत देख पूछा कि पुत्र!चिंता किसकी करता है? नारायण काउत्तर
था- माँ, चिंता करूँ विश्व की।उस समय उनकी आयु मात्र आठ वर्ष की थी। इस उत्तर को बचपना समझ माँ भूल गई, परन्तु
आगे और भी अतर्क्य घटित हुआ।बारहवर्ष की आयु में विवाह की बात चलने पर नारायण ने कहा, हमें गृहस्थाश्रम में रहना
स्वीकार नहीं।माँ ने इसे भी बचपना समझ विवाह रचाने की ठानकर उन्हें विवाह वेदी पर खड़ा हो जाने, बैठ जाने की आज्ञा
दी।नारायण ने माँ की आज्ञा भी मानी, परन्तु ज्योंहीवधु-वर्यो सावधानघोष अर्थात शुभमंगल सावधान का घोष हुआ, तो यह
सुनकर ही सावधान नारायण मंडप से पलायन कर गए और ढूँढने पर भी न मिले। बाद मेंगोदातट पर बसी नासिक के
टाकली गाँव में भिक्षा माँग निर्वहन कर श्रीराम की उपासना करते मिले। यह सन 1620 का काल था और इस समय वे मात्र
बारह वर्ष की अल्पायु के किशोर थे। इस काल में नंदिनी और गोदावरी नदियों के संगम पर अवस्थित तपोभूमि में उनका
नित्य का कार्यक्रम था -प्रातः शुद्ध होकर जप, व्यायाम, भिक्षा व अध्ययन करना लेकिन वे किसी के शिष्य नहीं थे।वे नित्य
प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर 1200 सूर्यनमस्कार लगाते थे। तत्पश्चात गोदावरी नदी में खड़े होकर श्रीराम नाम और गायत्री
मंत्र का जाप करते थे। दोपहर में केवल पांच घर की भिक्षा मांग कर वह अपने प्रभु श्रीराम को भोग लगाते थे। उसके बाद
प्रसाद का भाग प्राणियों और पंछियों को खिलाने के बाद स्वयं ग्रहण करते थे। दोपहर में वे वेद, वेदांत, उपनिषद, शास्त्र
ग्रन्थों का अध्ययन करते थे। उसके बाद फिर श्रीराम नामजप करते थे। रामोपासना में ऐसा कठोर तप करते हुए उन्होंने
तेरह करोड राम नाम जप बारह वर्षों में किया।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और हनुमान के चरित्र की महत्ता को स्थापित करने के लिए रामदास ने बाल्मीकि की सम्पूर्ण
रामायण अपने हाथ से लिखी। उन्होंने श्रीराम की प्रार्थनाएं भी रची, जो आज करुणाष्टकनाम से प्रसिद्ध है। कठोर तप करने
के बाद उन्हें आत्म साक्षात्कार हुआ, तब उनकी आयु चौबीस वर्षों की थी। टाकली में ही समर्थ रामदास ने प्रथम हनुमान का

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मंदिर स्थापन किया। श्रीराम भक्ति और श्रीरामोपासना में उनका अधिकांश समय व्यतीत होने के कारण यहीं उनका नाम
रामदास पड़ा। इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या ही बदल गई। उनका व्यक्तित्व प्रखरतापूर्ण दृष्टिगोचर होने
लगा।इसके बाद बारहवर्ष तक वे समस्त भारत का पद भ्रमण करते रहे। इस प्रवास में जनता की दुर्दशा देखकर उनका हृदय
संतप्त हो उठा। और उन्होंने मोक्ष साधना के स्थान पर अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी
शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे
घूमने लगे।बलवान व चपल देह, शस्त्र-शास्त्र व अश्व चालन में निपुण, तीव्र बुद्धि, साहित्यसृजन क्षमता, व्यवहार व संगठन
में कुशल व्यक्तित्व के स्वामी समर्थ रामदास ने महसूस किया कि समाज में इतनी कायरता आ गई है, कि लोग धर्म के
लिए भी लड़ने को तैयार नहीं होते। इसलिए पहले समाज से कायरता दूर करनी होगी। यह विचारकर समर्थ रामदास ने
समाज में स्वतंत्रता के विषय में वैचारिक क्रान्ति का अलख जगाने का कार्य प्रारंभ कर दिया। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को
यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए लोगों को उन्होंने व्यायाम एवं
कसरत करने की सलाह दी एवं स्थान- स्थान पर शक्ति के उपासक श्रीरामभक्त हनुमान की मूर्ति स्थापित की। जगह-जगह
मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि सम्पूर्ण राष्ट्र में नवचेतना का निर्माण हो।
समर्थ रामदास ने अपने शिष्यों के द्वारा समाज में एक चैतन्यदायी संगठन खड़ा किया। उन्होनें सातारा जिले में चाफलनाम
के एक गाँव में भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण किया। यह मंदिर निर्माण सिर्फ भिक्षाटन के माध्यम से किया। 350 वर्ष
पहले संत वेणा स्वामी जैसी विधवा महिला को मठपति का दायित्व देकर कीर्तन का अधिकार दिया। कश्मीर से कन्याकुमारी
तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी
प्रयत्न में उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य प्राप्ति का लाभ हुआ और उन्हें अपने जीवनकाल में ही स्वराज्य
स्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य प्राप्त हो सका। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था।
शिवाजी महाराज रामदास के कार्य से बहुत प्रभावित थे और जब इनका मिलन हुआ, तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य
रामदास की झोली में डाल दिया। रामदास ने महाराज से कहा- यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है,
हम सिर्फ़ न्यासी हैं। बाद में शिवाजी समय-समय पर उनसे सलाह-मशविरा किया करते थे। समर्थ रामदास ने दासबोध,
आत्माराम, मनोबोध आदि ग्रन्थों की रचना है। मराठी भाषा के ओवी छंद में रचित आत्माराम, मानपंचक, पंचीकरण,
चतुर्थमान, बाग़ प्रकरण, स्फूट अभंग इत्यादि समर्थ जी की अन्य रचनाएं हैं।
गुरु समर्थ रामदास स्वामी के सम्बन्ध में अनेक चमत्कारिक व अलौकिक कथाएं भी प्रचलित हैं। मान्यता है कि मृत पति के
चिता में सती होने को उद्यत अग्निहोत्री नामक मृत व्यक्ति के पत्नी को प्रणाम निवेदन करने पर अस्तापुत्र सौभाग्यवती
भव का आशीर्वाद दे देने के कारण अपनी आशीर्वाद को सत्य करने के लिए उन्होंने गोदावरी नदी के जल को मृत अग्निहोत्री
के शव पर छिड़ककर जीवित कर दिया था। तीर्थयात्रा और भारत भ्रमण के क्रम में समर्थ रामदास घूमते- घूमते हिमालय
आये। हिमालय का पवित्र वातावरण देखने के बाद विरक्त स्वभाव के रामदास के मन का वैराग्यभाव जागृत हो गया। उन्होंने
सोचा कि अब उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया, ईश्वर दर्शन हो गया, तो इस शरीर को धारण करने की क्या जरुरत है? ऐसा
विचार उनके मन में आया। उन्होंने स्वयं को एक हजार फीट से मंदाकिनी नदी में झोंक दिया। लेकिन उसी समय समर्थ
रामदास के स्वामी प्रभुराम ने उन्हें ऊपर ही उठा लिया और धर्म कार्य करने की आज्ञा दी। और अपने शरीर को धर्म के लिए
अर्पित करने का निश्चय उन्होंने कर दिया। तीर्थ यात्रा करते हुए वे श्रीनगर आए। वहाँ उनकी भेंट सिखों के गुरु हरगोविंद जी
महाराज से हुई। गुरु हरगोविंद सिंह ने उन्हें धर्म रक्षा हेतु शस्त्र सज्ज रहने का मार्गदर्शन किया।
अपने जीवन का अंतिम समय गुरु रामदासने सतारा के पास परली के सज्जनगढ़ किले पर व्यतीत किया। तमिलनाडु प्रान्त
के तंजावर ग्राम में रहने वाले अरणिकरनामक एक अंध कारीगर ने प्रभु श्री रामचंद्र, माता सीता औरलक्ष्मण की मूर्ति बनाकर
सज्जनगढ़ को भेज दी। इसी मूर्ति के सामने समर्थ ने अंतिम पाँच दिन निर्जल उपवास किया। और पूर्वसूचना देकरफाल्गुन

शुक्ल नवमी (गुजरात में माघ वद्य नवमी) शालिवाहन शक 1603 सन 1682 को रामनाम जाप करते हुए73 वर्ष की
अवस्था में पद्मासन में बैठकर ब्रह्मलीन हो गए। वहीं उनकी समाधि स्थित है। यह समाधि दिवस दासनवमीके नाम से
जाना जाता हैं। आज भी गुरु रामदास का नाम भारत के साधु-संतों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण
दक्षिण भारत में तो प्रत्यक्ष भगवान हनुमान के अवतार के रूप में उनकी पूजा की जाती है।

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