खिलौने बच्चों की आवश्यकता ही नहीं, सुख-दुख के संगी-साथी भी हैं। खिलौनों से न केवल बच्चों का मनोरंजन होता है अपितु उनका मानसिक तथा भावनात्मक विकास भी होता है।
माता-पिता की दृष्टि में खिलौने बच्चों को बहलाने के साधन-मात्रा अथवा ‘टाइम-पास’ हो सकते हैं किंतु बच्चों के लिए खिलौने बहुत कुछ होते हैं।
बच्चे चाहे अमीर परिवार के हों अथवा गरीब परिवार के, उन्हें खिलौने चाहिए ही। अपनी सामर्थ्य और बच्चे की अवस्था का ध्यान रखते हुये खिलौनों का चयन करना चाहिए। माता-पिता का कर्तव्य है कि अपने बच्चों को खेलने से कभी न रोकें। साथ ही खिलौने भी लाकर दें क्योंकि खिलौने बच्चों की बौद्धिक जरूरत भी हैं।
साथ ही इनसे बच्चों की कल्पनाशीलता एवं एकाग्रता में वृद्धि होती है लेकिन खिलौना खरीदने से पूर्व अपने बच्चों की मानसिक दशा को अवश्य ही समझ लेना चाहिए।
खिलौनों का महंगा होना आवश्यक नहीं है बल्कि उनका सरल होना आवश्यक है। खिलौनों के किनारे तेज धारदार नहीं होने चाहिए, साथ ही उनके हिस्से इतने छोटे नहीं होने चाहिए कि बच्चा खेल-खेल में निगल डाले।
पांच-छ: मास का बच्चा खिलौना पकड़ सकता है। इससे कम उम्र का बच्चा तो मां से ही खेल कर संतुष्ट हो जाता है।
बच्चों को चम्मच, प्लास्टिक रिंग या सोपकेस, कैसेट का खोखा, सेल, गेंद द्वारा पहले-पहल खिलाना चाहिए। गुब्बारा, झुनझुना और गुडिय़ा भी मनोरंजन कर सकते हैं। माचिस, सिगरेट का पैकेट, दवा की शीशी, चाकू, सिक्का जैसी वस्तुएं कभी भी बच्चों को न दें अन्यथा वे अपनी जान जोखिम में डाल लेंगे।
एक से दो वर्ष के बच्चों को गाड़ी, पक्षी या अन्य उपकरण जैसे टांजिस्टर, टी. वी, हंसने वाली गुडिय़ा देना चाहिए किंतु भूत-प्रेत, बाबा ओझा, बन्दूक जैसे खिलौने न दें। इनसे उनमें भय और क्रूरता की प्रवृत्ति पनपेगी।
दो से तीन साल के बच्चों को हार्ड कवर किताबें देनी चाहिए। इस उम्र में बच्चे चित्रों द्वारा अपना मनोरंजन और ज्ञानार्जन करते हैं। पुस्तक ऐसी लेनी चाहिए जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर एक-एक बड़े-बड़े रंगीन चित्र छपे हों। गिनती-सीखने वाला स्लेट पट्टी या जोड़कर चित्र पूरा करने वाला प्लास्टिक का खिलौना भी अच्छा साधन है।
बच्चा जब पायलट बनना चाहे तो एरोप्लेन, खिलाड़ी बनना चाहे तो बैट-गेंद, चित्रकार बनना चाहे तो ब्रश या रंगीन पेंसिल और ड्राईंग शीट देना चाहिए। तीन से पांच साल का बच्चा अपनी भावनाएं जरूर बता देता है।
माता-पिता को बच्चे की इच्छा का भी ध्यान रखना चाहिए और उसकी परेशानी भी समझनी चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि बच्चा खिलौनों से बोर तो नहीं हो रहा।
खेल-खिलौनों के मामले में लड़का और लड़की में भेदभाव करना कतई उचित नहीं। हां, लड़कियां अगर रसोई संबंधी, रंगोली या डांस जैसे खेल खेलना चाहें तो उन्हें कभी न रोकें।
जहां तक संभव हो बच्चों को समूह में खेलने दें। इससे उनमें सहयोग की भावना विकसित होती है।
वैसे माता-पिता को भी कुछ समय बच्चों के साथ खेलना चाहिए। इससे बच्चे माता-पिता से अपनी गलतियां छुपाने में संकोच नहीं करेंगे और उनको मजा आयेगा। स्मरण रखें, खेल और खिलौने बच्चों के जन्म-सिद्ध अधिकार हैं, अस्तु इनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
– पं. घनश्याम प्रसाद साहू