Tuesday, November 19, 2024

महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण वाला बिल 27 साल तक कैसे लटका रहा !

प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने 19 सितंबर, 2023 को गणेश चतुर्थी पर नए संसद भवन में राजनीति में महिलाओं के लिए एक नए दौर की शुरुआत कर दी है। महिला आरक्षण बिल के मसौदे को पीएम ने ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ के नाम से पेश किया। इससे देश की संसद सहित राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण दिए जाने की तस्वीर और साफ हो गई।  मौजूदा लोकसभा सीटों के नए सिरे से परिसीमन के बाद महिला आरक्षण लागू होगा। जो सीटें एससी/एसटी के लिए आरक्षित हैं, उनमें से भी एक तिहाई सीटें  एससी/एसटी महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी।

महिला आरक्षण विधेयक, 2023 के मसौदे के मुताबिक, ये विधेयक मौजूदा सीटों के परिसीमन के बाद प्रभावी होगा। इसमें एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होंगी। विधेयक में प्रावधान है कि जो सीटें एससी/एसटी के लिए रिजर्व हैं, वो भी महिला आरक्षण के दायरे में आएँगी।

जानकारी के अनुसार सोमवार (18 सितंबर, 2023) को हुई केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में मोदी कैबिनेट ने महिला आरक्षण बिल को मंजूरी दे दी थी। ये बिल बीते 27 साल से अधर में लटका हुआ था। ये फैसला पब्लिक में तो नहीं आया था, लेकिन केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने एक्स हैंडल (पहले ट्विटर) पर इसे लेकर पोस्ट डाली थी। बाद में उन्होंने ये पोस्ट डिलीट कर दी थी। हालाँकि, अब ये बिल संसद में पेश कर दिया गया है। इस पर चर्चा चालू है। इशारा साफ है कि संसद की पुरानी इमारत में शुरू हुआ और नई इमारत में 5 दिन का ये खास सत्र महिलाओं के लिए खास होने जा रहा है। आखिर ये महिला आरक्षण बिल क्या है और ये अभी तक देश की संसद में क्यों नहीं पास हो पाया?

महिला आरक्षण विधेयक संसद में पहली बार पेश नहीं किया जा रहा है। इससे पहले भी इस बिल को देश की संसद में पेश किया जा चुका है, लेकिन राजनीतिक दलों में आम सहमति न बन पाने की वजह से ये हर बार टलता रहा। पीएम मोदी ने पुराने संसद भवन में अपने आखिर भाषण इस बात के संकेत भी दिए थे कि देश की संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी में कमी है। उन्होंने कहा था कि आज़ादी के बाद से अब तक दोनों सदनों में 7500 से अधिक जन प्रतिनिधियों ने काम किया है। इनमें महिला प्रतिनिधियों की संख्या करीब 600 रही है। इसी से समझा जा सकता है कि संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है।

वर्तमान लोकसभा में, 539 सांसदों में 82 महिला सदस्य चुनी गईं, जो कुल संख्या का महज 15.21 फीसदी है। सरकार द्वारा दिसंबर 2022 में संसद के साथ साझा किए गए आँकड़ों के मुताबिक, राज्यसभा में भी 238 सांसदों में से 31 महिला सांसद हैं जो कुल सांसदों का 13.02 फीसदी है। वैश्विक औसत के हिसाब संसद में महिलाओं की भागीदारी में हम बेहद पीछे है। इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन की स्टडी के मुताबिक, वैश्विक औसत 26 फीसदी है। आँकड़ों से पता चलता है कि कई राज्य विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व 15 फीसदी से कम है। आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और पुद्दुचेरी सहित कई राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से कम है। मिजोरम और नगालैंड में विधानसभा में महिलाओं का प्रतिशत जीरो है।

दिसंबर 2022 के सरकारी आँकड़ों के अनुसार, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में 10-12 प्रतिशत महिला विधायक थीं। सबसे अधिक महिला विधायकों के प्रतिनिधित्व वाले पाँच राज्यों में छत्तीसगढ़ में 14.44, पश्चिम बंगाल में 13.7 और झारखंड में 12.35, राजस्थान में 12 और यूपी में 11.66 फीसदी महिला विधायक हैं। जहाँ जम्मू-कश्मीर 2.30, कर्नाटक में 3.14, पुड्डुचेरी में 3.33 फीसदी हैं। वहीं दिल्ली और उत्तराखंड की विधानसभा में उनकी भागीदारी महज 11.43 फीसदी ही है। पिछले कुछ हफ्तों में, बीजद और बीआरएस सहित कई दलों ने इस विधेयक को पुनर्जीवित करने की माँग की है। वहीं इसे लेकर कांग्रेस ने भी रविवार (17 सितंबर) को अपनी हैदराबाद कॉन्ग्रेस कार्य समिति की बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया।

इस विधेयक को लेकर एक खास बात है कि जहाँ राजद, सपा, झामुमो जैसे दल इस महिला आरक्षण के अंदर भी एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण की माँग को लेकर इसका विरोध कर रहे हैं। लेकिन बीजेपी के साथ कॉन्ग्रेस, बीजेडी, बीआरएस, वाईएसआरसीपी इस बिल के समर्थन में बताई जा रही है। इस बिल का विरोध करने वाले सपा के लोकसभा में 4 तो राजद का एक भी सांसद नहीं हैं, ऐसे में इस बिल के पास होने के पूरे आसार हैं। गौरतलब है कि इस विधेयक को अमलीजामा पहनाने की कवायद पाँच बार की गई, लेकिन हर बार वंचित महिलाओं की भागीदारी के सवाल पर दल बंट गए और ये कानून नहीं बन पाया।

प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के 1975 के कार्यकाल के दौरान ‘टूवर्ड्स इक्वैलिटी’ नाम की एक रिपोर्ट आई थी। इसमें हर क्षेत्र में महिलाओं के हालात का ब्यौरा दिया गया था। इसके साथ ही आरक्षण की बात भी कही गई थी। हालाँकि, इस रिपोर्ट को तैयार करने वाली कमेटी के अधिकांश सदस्य आरक्षण के खिलाफ थे। महिलाएँ भी चाहती थीं कि वो अपने दम पर राजनीति में आएँ, लेकिन आने वाले वर्षों में महिलाओं ने महसूस किया कि राजनीति की उनकी राह आसान नहीं है।

तभी से महिलाओं को संसद में प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण की जरूरत समझी गई। देश के दिवंगत पीएम राजीव गाँधी ने 1980 के दशक में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए बिल पास करने की कोशिश का तब कई राज्यों की विधानसभाओं ने विरोध किया था। उनका कहना था कि इससे उनकी शक्तियों में कमी आएगी। पहली बार 12 सितंबर, 1996 में महिला आरक्षण विधेयक को पीएम एचडी देवेगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार ने पेश किया था। उस वक्त कॉन्ग्रेस इस गठबंधन को बाहर से समर्थन दे रही थी। उस वक्त समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव और राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव ने इसका पुरजोर विरोध किया था।

तब यह विधेयक 81वें संविधान संशोधन विधेयक के तौर पर पेश किया गया था। इसमें संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षण के प्रस्ताव के अंदर ही अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए उप-आरक्षण का प्रावधान था, लेकिन अन्यपिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं था।
इस बिल में प्रस्ताव है कि लोकसभा के हर चुनाव के बाद आरक्षित सीटें रोटेट की जानी चाहिए। आरक्षित सीटें राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में रोटेशन से दी की जा सकती हैं।

इस संशोधन अधिनियम के लागू होने के 15 साल बाद महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण खत्म हो जाएगा। इसके बाद 1997 में इस विधेयक को पेश करने की फिर से कोशिश की गई थी। तब जनता दल (यूनाइटेड) के शरद यादव ने इस विधेयक की आलोचना करते हुए आपत्तिजनक कॉमेंट किया था कि इस बिल से केवल ‘पर-कटी औरतों’ का ही फायदा पहुँचेगा। उन्होंने कहा था कि ‘परकटी शहरी महिलाएँ’ हमारी ग्रामीण महिलाओं का प्रतिनिधित्व कैसे करेंगी।

इसके बाद 1998 में 12वीं लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में उस वक्त के कानून मंत्री एम थंबीदुरई ने इस विधेयक को पेश करने की कोशिश की, लेकिन इसमें फिर कामयाबी नहीं मिली। तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री एम थंबीदुरई विधेयक पेश करने जा रहे थे तब राजद सदस्य सुरेंद्र प्रकाश यादव ने इसे मंत्री के हाथ से छीन लिया। सहकर्मी अजीत कुमार मेहता के साथ वह उन्हें नष्ट करने के कोशिश में और इसकी अधिक प्रतियाँ लेने के लिए अध्यक्ष की मेज पर जा पहुँचे थे।

वाजपेयी सरकार ने दोबारा 13वीं लोकसभा में 1999 में इस विधेयक को पेश करने की कोशिश की। उस दौरान भी राजनीतिक दल इसी माँग को लेकर बँट गए। इसके बाद उन्होंने 2002 और 2003-2004 में भी इस बिल को पास करने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए। वाजपेयी सरकार इस बिल को कम से कम 6 बार संसद में लेकर आई, लेकिन हर बार कॉन्ग्रेस और उसके सहयोगियों ने ही बिल को टाल दिया। याद रखें, वाजपेयी सरकार के पास इसे पारित करने के लिए आवश्यक बहुमत नहीं था और वह आम सहमति के लिए विपक्ष पर निर्भर थी।

कॉन्ग्रेस की अगुवाई में साल 2004 में यूपीए सरकार के आने पर मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। तब 2008 में इस बिल को 108वें संविधान संशोधन विधेयक के तौर पर राज्यसभा में पेश किया गया। साल 2008 में इस बिल को क़ानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति को भेजा गया था। समिति के दो सदस्यों में वीरेंद्र भाटिया और शैलेंद्र कुमार समाजवादी पार्टी के थे। इनका कहना था कि वो इसके विरोध में नहीं है, लेकिन बिल के मसौदा उन्हें मंजूर नहीं है। इन्होंने सलाह दी थी कि प्रत्येक राजनीतिक दल अपने 20 फीसदी टिकट महिलाओं के लिए आरक्षित रखे और संसद में महिला आरक्षण 20 फ़ीसदी से ज्यादा न हो।

यूपीए सरकार में 9 मार्च, 2010 को आखिरकार राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को एक के मुकाबले 186 मतों के भारी बहुमत से पास किया गया था। जिस दिन यह बिल पास हुआ उस दिन मार्शल्स का इस्तेमाल करना पड़ा था। तब भी बीजेपी, वाम दलों और जेडीयू ने इसका समर्थन किया था। वहीं समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने इसका पुरजोर विरोध किया था।

राज्यसभा अध्यक्ष ने हंगामा करने वाले समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के सात सांसदों को अध्यक्ष ने निलंबित कर दिया था। ये दोनों दल सरकार में यूपीए के साथी थे। सरकार पर गिरने का खतरा मंडराने की वजह से कॉन्ग्रेस ने इस बिल को लोकसभा में पेश नहीं किया।दरअसल संविधान के अनुच्छेद 107 (5) के तहत जो विधेयक लोकसभा में विचाराधीन रह जाते हैं, वो उसके भंग होते ही खत्म हो जाते हैं। इस वजह से 2014 में लोकसभा भंग होने के बाद यह महिला आरक्षण बिल अपने आप खत्म हो गया। हालाँकि, राज्यसभा स्थायी सदन होने ये बिल अभी अस्तित्व में है। इसलिए इसे लोकसभा में नए सिरे से पेश किया जाएगा।

साल 2014 में सत्ता में आई बीजेपी नीत मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में इसे पेश करने की बात की। पार्टी ने 2014 और 2019 के चुनावी घोषणा पत्र में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण का वादा किया था। पीएम को 2017 में पत्र लिखकर कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गाँधी ने अपना समर्थन जताया था। कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गाँधी ने भी 16 जुलाई, 2018 को पीएम को पत्र लिखकर पार्टी के समर्थन की बात दोहराई थी। 2019 में लोकसभा चुनावों के लेकर भी राहुल गाँधी ने तब कहा था कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह महिला आरक्षण विधेयक को प्राथमिकता के आधार पर पास करेंगे।

हालाँकि, इस बिल को लेकर कॉन्ग्रेस का गेम प्लान हमेशा महिला प्रतिनिधित्व के एजेंडे पर दिखावा करना है, जबकि व्यवहार में अपने गठबंधन सहयोगियों और वास्तव में अपने स्वयं के सांसदों के जरिए से वो इसे नाकाम करती रही है। कॉन्ग्रेस, जिसके पास 2010 में अपेक्षित बहुमत था, केवल भाजपा के समर्थन की वजह से राज्यसभा के जरिए ये विधेयक पारित कर सकी, लेकिन एक बार फिर यहाँ वो इसका दिखावा साबित हुआ। सोनिया गाँधी ने ये स्वीकार किया था कि उनकी अपनी पार्टी ने इसका विरोध किया।

साल 2023 के पाँच दिन के खास सत्र के दौरान ये बिल पेश हो गया है। अगर ये पास हो जाता है, तो फिर राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद ये कानून बन जाएगा। इसके कानून बनते ही 2024 लोकसभा चुनावों में लोकसभा की हर तीसरी सदस्य के महिला होने की राह आसान हो जाएगी।
-रामस्वरूप रावतसरे

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