काफी समय बाद पिछले दिनों रेलवे स्टेशन जाना हुआ। किसी नजदीकी परिचित का आगमन था, जिन्हें नया शहर होने के कारण व्यक्तिगत रूप से लेने जाना आवश्यक था। ट्रेन के आने में वक्त था और आराम से बैठकर आंखें मूंदकर मैं प्रतीक्षा करने लगा था कि तभी प्लेटफार्म पर गूंज रही उद्घोषणा ने मेरी शांति भंग की थी। उद्घोषक या साउंड-सिस्टम, कारण जो भी हो, की आवाज काफी तेज और तीखी लग रही थी।
शब्द, प्रहार करते से महसूस हो रहे थे। एक ही अर्थ वाले वाक्य बार-बार और निरंतर बोले जा रहे थे। संक्षिप्त में कहें तो तात्पर्य था कि ‘किसी भी अनजान व्यक्ति द्वारा किसी भी तरह के खाने का सामान देने पर उसे लेकर न खायें। इसमें जहर हो सकता है। लावारिस वस्तु को हाथ न लगायें। यह बम हो सकता है, इसकी सूचना पुलिस को तुरंत दें। इसी अर्थ को लिये हुए कुछ वाक्य बार-बार लगातार तेज शब्दों में दोहराये जा रहे थे और प्रत्येक के अंतिम कुछ शब्द यही थे कि ‘इसमें जहर हो सकता है। यह बम हो सकता है आदि-आदि।
तेजी से की जा रही इस घोषणा के बीच गाडिय़ों के आवागमन की सूचना एवं अन्य महत्वपूर्ण रेलवे की जानकारियां गौण होती जा रही थीं। न जाने क्यों दस मिनट बाद ही लगने लगा कि मानों इन शब्दों ने मुझ पर हथौड़ों से प्रहार करना प्रारंभ कर दिया है। इन शब्दों ने दिल और दिमाग में घुसकर कुछ ऐसा स्वांग रचा कि मुझे आसपास खड़ा हरेक व्यक्ति संदिग्ध लगने लगा और हरेक सामान के अंदर बम छिपे होने की शंका मन में उत्पन्न होने लगी थी। यह सोचकर कुछ देर में ही सिर चकराने लगा था।
अगले ही पल, एक मिनट के लिए, घबराकर आंखें पुन: बंद की तो अचानक महसूस हुआ कि हो सकता है प्लेटफार्म पर खड़े अन्य व्यक्ति भी शायद मुझे संदिग्ध ही समझ रहे हों। विचारों ने दिल-दिमाग को झकझोरकर रख दिया था। हे भगवान! यह हमने अपनी दुनिया को कहां से कहां पहुंचा दिया? अपने समाज को क्या बना डाला? इतना अविश्वास, इतनी आशंका!! सदियों से कहा तो यही कहा जाता रहा है कि शक का कोई इलाज नहीं होता परंतु यहां तो पूरे समय-काल को ही शंकाग्रस्त कर दिया गया है।
अपने दैनिक जीवन को नजदीक से देखें तो वहां भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिलेगा। हर पल आशंका, डर, भय। यह सिलसिला कहां जाकर रुकेगा? ठीक-ठीक समझ पाना मुश्किल है। ऐसी परिस्थिति में कुछ दिनों बाद अगर हाट-बाजार की किसी भी दुकान से खाद्य सामग्री खरीदते समय भी शंका पैदा होने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हो सकता है कुछ समय बाद बच्चा अपनी मां के हाथों से भी खाने में डरने लगे? पति, पत्नी के हाथ से बनाये खाने से पूर्व अपनी शंका का निवारण करने लगे! ऐसे में क्या सामान्य जीवन संभव होगा? आज हम इसे काल्पनिक अवस्था कहकर हवा में उड़ा सकते हैं, मजाक बना सकते हैं, मगर सच तो यह है कि हम इस अवस्था की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं।
ऐसा नहीं कि उपरोक्त उद्घोषणा करने वालों की बातें गलत थीं। यह सोचना भी मूर्खतापूर्ण होगा कि इस तरह की दुर्घटनाएं घटित नहीं हो रहीं। विश्वस्तर पर ऐसी घटनाएं आम होती जा रही हैं, मगर मुश्किल इस बात की है कि हम इससे बचने का मात्र उपाय ढूंढ़कर, सावधानी बरतकर अपने आधुनिक, समझदार व सतर्क होने का प्रदर्शन कर रहे हैं।
इस समस्या के निवारण हेतु इसके मूल में नहीं जा रहे। हम अमूमन शार्ट-टर्म सॉल्यूशन पर काम करते हैं। बीमारी को दबाने का काम करते हैं। जड़ से उसे मिटाने का प्रयास भी नहीं करते, जो फिर अगले कुछ समय बाद और मजबूती से उभरकर सामने आती है। हम समस्या को मूल से खत्म करने के लिए प्रयासरत नहीं होते तुरंत राहत के रास्ते ढूंढ़ते हैं। हम मुश्किल की घड़ी में दो वक्त ठहरकर सोचना नहीं चाहते।
फास्ट-फूड की तरह हर समस्या का सरल और आसान रास्ता चाहते हैं। हमने स्वयं अपने जीवन को महत्वाकांक्षाओं, भौतिक सुख-सुविधा-सफलता, व्यक्तिगत स्वार्थ से जोड़कर कुछ यूं बनाकर नये रूप में खड़ा कर दिया है कि जीवन, जीवन नहीं रहा। उधर, जब जनसंख्या आवश्यकता से अधिक बढ़ जायेगी और सभी की चाहतें आपस में टकराने लगेंगी तो अराजकता का फैलना स्वाभाविक है।
संतोष शब्द को हमने अपने जीवन से निकाल बाहर फैंका है। संतुष्टि अब हमें होती ही नहीं। हर वक्त, हर इंसान सुपरफास्ट एक्सप्रेस की तरह चौबीस घंटे, 365 दिन, तमाम उम्र, भागता ही रहता है। ऐसे में उससे हम क्या उम्मीद कर सकते हैं। जिस समाज की परिकल्पना हम करेंगे, वही तो हमें मिलेगा और मिल रहा है, लेकिन सवाल इस बात का है कि क्या समाज की स्थापना हमने इसीलिए की थी? और अगर नहीं भी की थी तो अंत में यह तो पूछा जा सकता है कि इस आधुनिक समाज से हमें हासिल क्या होगा? सच तो यह है कि जीवन में मूल रूप से अगर सुख-शांति और चैन नहीं तो फिर कुछ भी नहीं।
और इन शब्दों के जीवन में आते ही व्यक्तिगत ही नहीं, समाज की उपरोक्त सारी मुसीबतें अपने आप समाप्त होने लग जाती हैं। मुझे बचपन के वे दिन याद आते हैं, जब रेलयात्राओं में साथ सफर कर रहे सहयात्री अनायास व अचानक ही घनिष्ठ सगे-संबंधी की तरह व्यवहार करने लग जाया करते थे। लंबे सफर में दूसरे यात्री के घरों का खाना अमूमन हम बच्चों को अति स्वादपूर्ण लगता था। सफर में बने कई संबंध तो कई बार तमाम उम्र बरकरार रहते थे। इन ट्रेन के रिश्तों में भी अपनी सुगंध होती थी। कई संबंध तो स्टेशन पर उतरने के बाद रिश्तों में बदल जाया करतेे थे। और कुछ नहीं तो कम से कम अकेले सफर कर रहे वृद्ध, बीमार, महिलाओं और कमजोर को कभी भी किसी तकलीफ या मुसीबत का सामना नहीं करना पड़ता था। सहयात्री हरसंभव सहयोग के लिए स्वत: ही प्रयासरत हो जाया करते थे।
बीच के स्टेशनों पर उतरकर अपने चाय-नाश्ते के साथ-साथ सामने वाले का चाय-पानी लाने में जो सुख होता था, वह किसी भी कीमत पर आज आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकता। चाहे फिर वह चाय-ठंडा दस पैसे से लेकर चार आने या एक रुपये का ही क्यों न हो। और तो और इन पैसों को वापस लेने तक से मना कर दिया जाता था। लोग एक-दूसरे को खिलाने-पिलाने में गौरवान्वित महसूस करते थे। और अंत में लंबी से लंबी यात्रा भी ऐसे ही सुखमय और यादगार बन जाया करती थी, लेकिन अब ट्रेन के सफर के साथ-साथ जीवन का सफर भी शक और शंकाओं में डूबकर तनावग्रस्त हो चुका है। इसमें खुशबू का तो नाम ही नहीं।
प्रेम, आदर, सम्मान, विश्वास की किसी को उम्मीद नहीं, मगर दिल के किसी कोने में हृदय तो आज भी धड़कता है और नैसर्गिक जीवन भी यही चाहता है। हर आंख किसी अपने की तलाश में भटकती रहती हैं, मगर पहल कौन करे? क्योंकि उद्घोषणाओं द्वारा जोर-जोर से चिल्लाये जा रहे शब्द आपको अनायास ही ऐसा करने से रोक देते हैं।
मनोज सिंह – विभूति फीचर्स