हिंदी भाषी क्षेत्रों में अपनी दुर्दशा के चरम पर कांग्रेस ऐसे ही नहीं पंहुची है। इसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। राहुल गांधी और कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ कांग्रेस के छिपे और खुले आईटी सैल मोदी की अकारण जितनी छीछालेदर कर रहे हैं, उससे मोदी की स्वयं निर्मित स्वच्छ छवि पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है, उल्टे राहुल गांधी और कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं की पहले से दागदार छवि और अधिक दागदार होती चली जा रही है।
देश की विकास योजनाओं का श्रेय जितना पूर्व कांग्रेसी प्रधान मंत्रियों को देने का प्रयास किया जाएगा. भाजपा के आईटी सैल उतने ही सप्रमाण उनकी बखिया उधेड़ कर उन्हें जनता के बीच वस्त्रहीन करते जायेंगे। इसका सीधा सीधा प्रभाव जनता के ऊपर पड़ता जाएगा और कांग्रेस कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह जायेगी। अपने कर्मों की खुलती जा रही किताबों के कारण वैसे ही कांग्रेस की छवि इतनी दागदार हो चुकी है कि पूरे देश में उसे आगामी चुनाव में सभी सीटों पर प्रत्याशियों के अकाल का सामना करना पड़ रहा है। यह कांग्रेस के अध:पतन का परिचायक नहीं है तो क्या है?
निश्चित रूप से ऐसा पहली बार हुआ है जब देश की सबसे पुरानी और आजादी के संघर्ष की स्वयंभू मुखिया कांग्रेस पार्टी ने अपने सबसे सुरक्षित गढ़ रहे उप्र को ही टा टा कह दिया है। जिस प्रदेश ने देश को उसके तमाम प्रधानमंत्री दिए हैं, वहां पर अपनी लचर और बेहद कमजोर हालात के कारण कांग्रेस अपने दिग्गजों तक को उतारने का साहस तक नहीं जुटा पा रही है। अधोपतन की पराकाष्ठा तो यहाँ तक पंहुच चुकी है कि उप्र में सदा से स्वयं को बड़ा भाई कहती रही कांग्रेस खुद को सबसे छोटा भाई मान कर घुटनों पर आ चुकी है। तभी तो उप्र की सारी 80 लोकसभा सीटों पर लडऩे वाली कांग्रेस अब कुल 17 सीटों पर लडऩे को सहमत हो गई है। इसे कांग्रेस की बदहाली की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा कि रायबरेली और अमेठी जैसी सीटों पर चुनाव लडऩे में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के फिलहाल तो पसीने छूट ही रहे हैं। हद तो यह है कि किसी न किसी बहाने कांग्रेस के स्वयं को दिग्गज नेता कहने और समझने वाले नेता प्रत्याशी तक बनने से कन्नी काट रहे हैं।
हद तो तब हो जाती है, कि जिस प्रदेश ने और जिन दो सीटों ने देश को जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे प्रधानमंत्री बार बार दिए हों, और जिन दो सीटों ने सोनिया और राहुल के रूप में कांग्रेस के तत्कालीन स्वयंभू अध्यक्षों को बार बार जिताकर भेजा हो, उन सीटों की दुर्दशा का आलम यह है कि सोनिया राजस्थान से राज्यसभा चली गईं हैं और राहुल का नाम केरल के वायनाड से घोषित किया जा चुका है। प्रियंका गांधी आज तक कोई चुनाव लडऩे की हिम्मत ही नहीं कर सकीं हैं जबकि कुछ वर्ष पहले ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं कहकर उन्होंने सनसनी जरूर फैला दी थी। पिछले लोकसभा चुनाव में तो यह भी कहा गया कि प्रियंका काशी से मोदी के खिलाफ़ ही चुनाव लड़ेगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अब उम्मीद थी कि मां सोनिया द्वारा छोड़ी गई रायबरेली सीट से प्रियंका मजबूती के साथ लड़ेंगी तो अंदर से खबर आ रही है कि प्रियंका ने चुनाव लडऩे से इंकार कर दिया है।
इन सब अफवाहों का खुलासा तो कुछ दिनों में हो ही जाएगा। हो सकता है कि राहुल पहले की तरह अमेठी से भी पर्चा भरें और प्रियंका भी रायबरेली से लडऩे को तैयार हो जाएं मगर इस समय गांधी परिवार के पलायन की अफवाहों का असर इतना अंदर तक दिखाई दे रहा है कि दिग्गज नेता सलमान खुर्शीद और बड़बोले प्रदेश अध्यक्ष अजय राय तक ने चुनाव लडऩे से इंकार कर दिया है। सिर्फ इतना ही नहीं, उत्तर भारत के कईं राज्यों में भी दिग्गज कांग्रेसी, कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चुनाव लडऩे से साफ़ इंकार कर रहे हैं।
इंडी गठबंधन के सबसे बड़े दल के रूप में स्वयं को समझ और दिखा रही कांग्रेस के लिए यह स्थिति लेशमात्र भी सुखद नहीं है। कोढ़ में खाज के रूप में बिहार के बाद अब बंगाल में मानमर्दन और फिर अब कश्मीर में भी गठबंधन में बहुत बड़ी दरार पड़ गई है। यह कहा जा सकता है कि बिहार और महाराष्ट्र में एनडीए का तालमेल भी आसानी से नहीं हो पा रहा है। परंतु वह इतना विकराल भी नहीं है कि सुलझाया तक न जा सके। इसके अतिरिक्त बीजेपी में कांग्रेसियों की तरह प्रत्याशियों और टिकटों के लिए लाइन का कोई संकट भी नहीं है। लालू के बहकावे में अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार कर गठबंधन का संयोजक नीतीश कुमार को न बनाकर कांग्रेस से कितनी बड़ी गलती हो गयी है, इसका पता अब चल ही रहा है। इससे बड़ी तबाही का सामना तो कांग्रेस को निर्वाचन के नतीजों के बाद करना पड़ेगा।
चारों ओर से दबावों के चलते कांग्रेस इतनी कुंठित हो चुकी है कि विदेशी सलाहकारों, वामपंथियों, मुटठी भर जेहादियों और धार्मिक इदारों के दबावों में आ कर जैसा वे चाहते हैं, बोल रही है और एक एक कर अपनी बची खुची जड़ों को भी काट रही है। सारे के सारे नेता इस हद तक कुंठित हैं कि मोदी के प्रति जितने व्यंगात्मक और असंसदीय विशेषणों का प्रयोग वे कर सकते हैं कर रहे हैं। इससे उत्साहित होकर अपने सलाहकारों की बेतुकी सलाहों का पालन करते हुए राहुल गांधी भी या तो ऊलजलूल तरह की हरकतें कर रहे हैं या फिर इस तरह की शब्दावलि का प्रयोग कर रहे हैं, जो असंसदीय है। इसके लिए उन्हें विभिन्न एजेंसियों द्वारा चेतावनियाँ भी दी जा रही हैं मगर जो सुधर जाय, उसे राहुल गांधी कैसे कहा जा सकता है?
कुल मिला कर बस यही कहा जा सकता है कि अब तो भगवान के ही हाथ में है कि वह कांग्रेस को इस दुर्दशा से निकालेगा या नहीं? राहुल को सद्बुद्धि देगा भी या नहीं? और अगर देगा भी तो कब? क्योंकि अगर अभी सद्बुद्धि नहीं दी गयी तो बहुत देर हो जायेगी और कांग्रेस एक ऐसे गर्त में गिर जायेगी जहाँ से निकलने में उसे बरसों लग जायेंगे। ऐसा लगता है कि इस समय तो राहुल गांधी अपनी पार्टी के खर्चे पर भाजपा के स्टार प्रचारक के रूप में काम कर रहे हैं?।
-राज सक्सेना